अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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भोग, अतिभोग, बहुभोग की ओर धंसता ही जा रहा है। इसी के अनुरूप कला कलाकारियाँ और कलाविदों का एक खास पहचानने योग्य समुदाय भी तैयार हो चुकी है। जबकि ऐसे व्यापारविद समुदाय और कलाविद समुदाय कहीं भी उत्पादन के लिए चिन्हित रूप में सहायक नहीं हैं। इसी व्यापार के विस्तार के लिए ही अधिकांश अर्थशास्त्रों का प्रणयन हो चुकी है। इससे अनुप्राणित व्यापारी, कलाविद इन दोनों प्रकार के मानसिकता से राज्य संस्था और राजनीतिज्ञ प्रभावित होना पाया गया है। इतना ही नहीं धर्म, धर्मनीति और धर्मनीतिज्ञों - धर्मगद्दियों पर भी इन्हीं दो पक्ष का प्रभाव पड़ता हुआ अथवा इन्हीं दो पक्षों से यह प्रभावित होता हुआ दिखाई पड़ता है। इन सभी घटनाओं को ध्यान में लाने पर निष्कर्ष यही निकलता है :-

  • व्यापार विधि से समाज नहीं बन सकता।
  • व्यापार विधि से समुदायों में अन्तर्विरोध मिट नहीं सकता।
  • व्यापार विधि से बैर विहिन परिवार हो नहीं सकते, समझौते में भले ही सांत्वना पाते रहे।
  • व्यापार विधि से धर्म सफल नहीं हो सकता।
  • व्यापार विधि से कोई राष्ट्र राज्य व्यवस्था सार्वभौम, अखण्ड और अक्षुण्ण नहीं हो सकती।
  • व्यापार विधि से कोई भी व्यक्ति समृद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि संग्रह सुविधा और लाभ का तृप्ति बिन्दु नहीं होता।
  • व्यापार विधि से सार्वभौम शुभ (समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व)घटित नहीं हो सकता।

इन निष्कर्षों के साथ ही विकल्प की ओर दृष्टिपात करना एक आवश्यकता है।

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