अर्थशास्त्र
by A Nagraj
अध्याय - 2
आर्वतनशील अर्थशास्त्र : दार्शनिक आधार
मानव परंपरा में अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, मनोविज्ञान शास्त्र, विज्ञान और तकनीकी शास्त्र, ज्ञान और विवेक शास्त्र के मूल में मानसिकता, विचार, इच्छाओं को पहचाना जाता है।
मानसिकता और विचार ही इच्छापूर्वक कल्पनाशीलता कहलाता है और इसी के साथ कर्म स्वतंत्रता कार्य करने लग जाती है। यही अध्ययन, शोध और अनुसंधान का मूल संपदा प्रत्येक मानव में होना पाया जाता है। कोई इसे उपयोग कर पाते है कोई नहीं कर पाते। इसी कल्पनाशीलता का समानता ही है सर्वशुभ की स्वीकृति का आधार। सर्वशुभ के संदर्भ में जितने भी प्रकार से शोध, अनुसंधान, अवतरण घटनाक्रम में, परिस्थिति क्रम में, पीढ़ी से पीढ़ी के रूप में दिखने वाली मानव परंपरा में पाये जाने वाले आंकलन चाहे वह राज्य, राष्ट्र, नस्ल, रंग, धर्म, संप्रदाय, भाषा के आधार पर क्यों न हो, इसमें कितनी विविधता क्यों न हो, यह सभी किसी घटना अथवा परिवर्तित घटना जन्य के रूप में आंकलित होना पाया जाता है। इसी तथ्य के आधार पर सर्वशुभ का आशय (1) समाधान (2) समृद्धि (3) अभय (4) सहअस्तित्व सहज प्रमाण परंपरा में है। आवर्तनशील अर्थशास्त्र, मानसिकता, विचार और प्रक्रिया का प्रणयन सर्वमानव में अथवा मानव परिवार में समृद्धि को ध्यान में रखते हुए उसे सहज सुलभ विधियों से सम्पन्न होना उद्देश्य है। इसे लोकव्यापीकरण करने के क्रम में सर्वशुभ रूप में कहे हुए चारों बिन्दुओं में अन्तरसंबंधों को पहचानना विधिवत अध्ययनक्रम में एक आवश्यकता है।
मानव ही सर्वशुभ की अपेक्षा करता है। अर्थशास्त्र का अध्ययन समृद्धि, समाधान, अभय और सहअस्तित्व क्रम में है। समृद्धि का धारक वाहक हरेक एक परिवार होता है, पारंगत प्रवर्तन के रूप में हर व्यक्ति दायी है। क्योंकि प्रत्येक मानव समृद्धि को स्वीकारता है। जिसको जो स्वीकारता है वह दायी होना एक स्वयंस्फूर्त और सर्वस्फूर्त आवश्यकता है। आवश्यकता के आधार पर प्रवृत्तियों और प्रवर्तन कार्य सम्पादित होना