अर्थशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 11

पाया जाता है। इस प्रकार हर मानव में आवश्यकता सहज स्वीकृति, परिवार में निश्चयन, परिवेश में अवसर नित्य वर्तमान होना पाया जाता है। हर अवसर हर मानव के लिए विभिन्न परिस्थितियों में समीचीन रहता है। मानव सहज कल्पनाशीलता में समीचीन अवसर समृद्धि के लिए स्वीकृत हो पाना या नहीं हो पाना ही प्रधान बिन्दु है अथवा प्रभेद है। इन्हीं प्रभेद के आधार पर उत्पादन प्रवृत्ति, प्रर्वतन और निष्ठा विविध होना पाया जाता है। समीचीन अवसर, समृद्धि की आकांक्षा इन दोनों के बीच में सूत्र निर्मित होना ही समृद्धि मार्ग प्रशस्त होने का सहज उपाय है। इसे भ्रमित करने का प्रधान कारक तत्व दो स्वरूप में दिखती है - (1) लाभ और व्यापार (2) संग्रह और भोग। इससे यह भी पता चलता है कि परंपरा में लाभ के बाद लाभ, भोग के बाद भोग का सम्मोहन बढ़ता आया है। इस सम्मोहन को समीक्षीत करने योग्य जागृति को सुलभ करना ही आवर्तनशील अर्थचिंतन, विचार और शास्त्र की महिमा है। इसका आधार सर्वमानव स्वीकृत शुभाकांक्षा ही है। ऐसे शुभाकांक्षाओं को अर्थात् समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व को सभी राज्य संस्था, धर्म संस्था, व्यापार संस्था, प्रौद्योगिकी संस्था, विज्ञान समुदाय, ज्ञान समुदाय प्रकारान्तर से स्वीकार किया हुआ है।

मानव में शुभाशुभ प्रवर्तन का आधार मानसिकता ही है। सर्वत्र मानसिकताएं परंपराओं से अनुप्राणित होना पाया जाता है। परंपराओं को शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था के स्वरूपों, आशयों, अनुप्राणन प्रणालियों पर आधारित रहना पाया जाता है। दूसरे विधि से संस्कृति, सभ्यता, विधि व व्यवस्था उसका प्रेरक और अनुप्राणन प्रणालियों पर निर्भर होना पाया जाता है। इन दोनों प्रणालियों से अनुप्राणित मानव परंपरा दिखाई पड़ती है। इसका समीक्षा मूल्यांकन यहीं है अभी तक साक्षरता, विज्ञान, उपदेश, आस्था और आंकलानात्मक ज्ञान समेत परस्परता में कुण्ठा, निराशा, भय से होता हुआ, प्रलोभन से ग्रसित होता रहा। फलस्वरूप संग्रह भोग लिप्सा से तंत्रित होकर द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्ध के लिए तत्पर होता हुआ सर्वाधिक समुदायों को देखा गया। जबकि हर मानव सर्वशुभ कामना करता ही रहा, अभी भी कर रहा है। ऐसे सर्वशुभ घटित न होने का क्या कारण रहा इसको परिशीलन किया गया और पाया गया कि -