अर्थशास्त्र
by A Nagraj
होना पाया जाता है। यही इस धरती का वातावरण रेखा भी है। प्रमुख रूप से श्रम कार्य का क्षेत्र इस धरती पर ही होना पाया जाता है।
समृद्धि सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं के आधार पर हो पाता है न कि मुद्रा के आधार पर। इसका दूसरा भी गवाही यही है सामान्य आकांक्षा और महत्वाकांक्षा के वस्तुओं से ही मानव का तृप्ति अथवा सर्वमानव का तृप्ति है न कि मुद्रा से। मुद्रा कितना भी होने पर वस्तु न होने की स्थिति बन सकती है। इसलिए मुद्रा से तृप्ति की संप्रभुता देखने को नहीं मिलती है। जबकि वस्तु हो, स्वस्थ मानव, तृप्ति पाने की संप्रभुता प्रमाणित हो जाती है। संप्रभुता का तात्पर्य निरंतर निश्चित फल प्रयोजन से है। ऐसा निश्चित फल प्रयोजन तृप्ति ही है। सभी शास्त्रों की चरितार्थता स्वस्थ मानव के अर्थ में ही अपेक्षा बन पाती है। संभावनाएं समीचीन रहता ही है। यह साधारण रूप में देखने को मिलता है कि जिनके पास वस्तुएं उपजती हैं, उन उन वस्तुओं का तृप्ति मानव को मिलता ही आया है।
तृप्ति का स्रोत संभावना और स्थिति को और प्रकार से देखा गया है कि प्रत्येक मानव में जीवन शक्तियाँ अक्षय है, क्योंकि आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रमाण को कितना भी परावर्तित करें और परावर्तन के लिए यथावत् शक्तियाँ उर्मित रहता हुआ देखने को मिलता है। उर्मित रहने का तात्पर्य उदयशील रहने से है। उदयशीलता का तात्पर्य निरंतर उदितोदित रहने से है। उदितोदित का तात्पर्य नित्य वर्तमानता से है। इस प्रकार प्रत्येक मानव में जीवन शक्तियाँ और बल नित्य वर्तमान होना स्वाभाविक है। शरीर यात्रा के पहले भी जीवन यथावत् रहता ही है। शरीर यात्रा के अनन्तर जीवन रहता ही है। जीवन सहज रचना कार्य के संबंध में अध्ययन सहज विधि से स्पष्ट की जा चुकी है। यह सूत्र अस्तित्व न तो घटती न तो बढ़ती- न ही पुरानी होती है। यह अस्तित्व सहज अनन्त वस्तुओं में व्यापकता सहज सहअस्तित्व के आधार पर स्पष्ट है। अस्तित्व में चारों अवस्थाएं नियति सहज अभिव्यक्ति है। नियति सहज कृति का तात्पर्य उपयोगिता एवं पूरकता और विकास जागृति सहज अभिव्यक्ति से है। सहअस्तित्व स्वयं क्रमबद्ध प्रणाली होने के कारण सम्पूर्ण घटना और प्रयोजन पूर्व घटना-प्रयोजन से जुड़ी हुई होते हैं। फलस्वरूप मूल रूप से गुंथी हुई, जुड़ी हुई, स्पष्ट हो जाते हैं। मूल रूप सहअस्तित्व ही है। जो नित्य वर्तमान ही है। वर्तमान त्रिकालाबाध