अर्थशास्त्र
by A Nagraj
सत्य है। परम सत्य रूपी वर्तमान में प्रमाणित होना ही सत्य का तात्पर्य है। वर्तमान स्वयं सहअस्तित्व और उसकी निरंतरता होना देखने को मिलता है। मानव भी अस्तित्व में अविभाज्य वस्तु होते हुए दृष्टापद प्रतिष्ठावश जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने की संपदा सम्पन्न है। इसलिए सत्य में राहत पाना मानव का अभीप्सा बनी हुई है। अभीप्सा का तात्पर्य अभ्युदय पूर्ण इच्छा से है। अभ्युदय का तात्पर्य सर्वतोमुखी समाधान व उसकी निरंतरता से है। सर्वतोमुखी समाधान सहअस्तित्व सहज वर्तमान में मानव का दृष्टा, कर्ता व भोक्ता पद को प्रमाणित करने से हैं। इस प्रकार मानव अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहज रूप से ही मूल्यांकन कार्य को संपादित कर तृप्ति को पाता है। ऐसे मूल्यांकन के मूल में प्रत्येक उत्पादित वस्तु के उपयोगिता, सदुपयोगिता प्रयोजन का आधार और उसका मूल्यांकन संभव हो जाता है। इस प्रकार हम मानव परंपरा रूपी (गति-प्रयोजन विहिन) राष्ट्रीय कोष, अन्तर्राष्ट्रीय कोष, सुवर्ण द्रव्य मूलक मूल्यांकन से मुक्त होकर श्रम नियोजन, श्रम मूल्य और मूल्यांकन विनिमय प्रणाली पूर्णतया संभव है और समीचीन है। जागृतिपूर्वक उपयोगिता, सदुपयोगिता क्रम को मूल्यांकन के लिए पहचानना सहज है। इसी तारतम्य में तृप्ति और उसकी निरंतरता सर्वसुलभ होता है।
जीवन सहज कार्यकलाप के अनुसार आशा, विचार, इच्छा के साथ-साथ प्रिय-हित-लाभ रूपी नजरिया क्रियाशील रहना भ्रमित मानव का प्रकाशन है भ्रमित अवस्था की यही लम्बाई - चौड़ाई है। इन्हीं के विस्तार वांङ्गमय के साथ-साथ भय और प्रलोभन का पुट देते हुए वांङ्गमयों का निर्माण होता रहा है। ऐसे वांङ्गमयों को (भय और प्रलोभनवादी परिकथाओं-कथाओं) बड़े सम्मान से लोक श्रवण स्वीकारता हुआ देखा गया। इससे स्पष्ट हो जाता है भय और प्रलोभन से चलकर आस्था तक पहुँचना जागृति क्रम में एक मंजिल मान लिया गया। आस्थावाद से ही अधिकाधिक आश्वासन, भय से राहत पाने का आश्वासन बना रहा है। कड़ी के रूप में इन सबको सीढ़ी-दर-सीढ़ी में होना देखा गया है। यह अंतिम मंजिल नहीं है यह भी देखा गया है। इसी क्रम में अर्थशास्त्र को भी विचार रूप में लाभ को एक आवश्यकीय तत्व मानते हुए ही प्रस्तुत किया गया।
संग्रह का तृप्ति बिन्दु न होने के कारण सबको संग्रह सुलभ होना संभव नहीं हुआ। क्योंकि यह धरती सीमित है। वस्तुएं दो प्रकार से बंट गई। वस्तु और प्रतीक वस्तु, और