अर्थशास्त्र
by A Nagraj
क्रिया का गणना कार्य को मानव में, से, के लिए किया जाना देखा। इस प्रकार उत्पादन में भागीदारी मानव में, से, के लिए होना स्पष्ट है।
उपयोगिता - शरीर पोषण, संरक्षण समाज गति में तन, मन, धन का नियोजन।
सदुपयोग - अखण्ड समाज गति में अर्थात् संस्कृति-सभ्यता गति में नियोजन-प्रयोजन। व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी में किया गया तन-मन-धन रूपी अर्थ का नियोजन।
परिवार मानव के रूप में जीने देकर जीने की कला में वस्तुओं का सटीक उपयोग समझ में आता है। कोई भी वस्तु का उपयोग तन, मन के बिना होना संभव होता नहीं है। अतएव उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील विधि में तन, मन, धन की अविभाज्यता होना आवश्यक है।
सदुपयोगिता को इस प्रकार से देखा गया है कि हम परिवार मानव के रूप में मानव संस्कृति-सभ्यता में नियोजित अर्थ सदुपयोग है, जी सकते हैं अर्थात् व्यवस्था में जीना बनता है, समग्र व्यवस्था में भागीदारी की आवश्यकता बना ही रहता है। क्योंकि अखण्ड समाज रूप, संरचना क्रम में ही सार्वभौम व्यवस्था समीचीन होना पाया जाता है यथा ग्राम परिवार और सभा। सभा का कार्यक्रम व्यवस्था के रूप में गण्य हो पाता है। उसमें संपूर्ण परिवार के भागीदारी का सूत्र स्थापित हुआ रहता है। इसी क्रम में विश्व परिवार सभा तक पहुंचना सम्भव है। स्वराज अर्थात् मानव अपने मानवीयतापूर्ण वैभव को प्रमाणित करने का कार्यक्रम और उसकी निरंतरता क्रम में ही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था को पाना संभव है।
प्रयोजनशीलता स्वरूप पीढ़ी से पीढ़ी में परम त्रय को प्रमाणित करने के क्रम में कार्यक्रम के साथ-साथ अथवा प्रमाण गति क्रम में, तन, मन, धन का नियोजन परम प्रयोजन है।
इस प्रकार उपयोगिता सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता पूर्वक कार्य स्वरूप प्रयोजन स्पष्ट है।
उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो चुका है कि मानव मानवीयतापूर्वक ही तन, मन, धन रूपी अर्थ का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता के अर्थ में नियोजित कर पायेगा। मानव ही अमानवीयता पूर्वक भोग, अतिभोग, बहुभोग पूर्वक तन, मन, धन का अपव्यय करता है।