अर्थशास्त्र
by A Nagraj
मूल्यों को अर्पित-समर्पित होता हुआ क्रम में देखा गया है। इसे हर व्यक्ति देख सकता है। जीवन मूल्य का स्वरूप सुख, शांति, संतोष और आनंद है। यह मन और वृत्ति के सामरस्यता में सुख, वृत्ति और चित्त में सामरस्यता का स्वरूप शांति, चित्त और बुद्धि में सामरस्यता का स्वरूप संतोष तथा बुद्धि और आत्मा में सामरस्यता का स्वरूप ही आनंद सहज नामों से जाना जाता है। अनुभवमूलक बोध को आनंद के रूप में पहचाना गया है। इसी क्रम में अनुभवमूलक क्रम में किया गया चिंतन, तुलन, सहज रूप में ही जीवन के अंर्तसंबंधों में सामरस्यता फलस्वरूप आनंद, संतोष, शांति और सुख जीवन मूल्यों के रूप में वैभवित होना पाया जाता है। यही जीवन मूल्य व्यवहार में मानव लक्ष्य के रूप में समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व में अनुभव सहज प्रमाण के रूप में प्रमाणित होना पाया गया है। यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र है।
उपयोगिता सहज प्रवृत्ति, कार्य और प्रयोजन ऊपर कहे हुए तथ्यों के आधार पर स्पष्ट हो चुकी है और उक्त विश्लेषणों से और तथ्यों को निर्देशित करने के प्रयासों से यह भी स्पष्ट हुई है कि मानव में, से, के लिए अर्थशास्त्र का अध्ययन है। मानव का सार्थक स्वरूप समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व एवं उसकी निरंतर गति ही है। मानव परंपरा का नित्य गरिमा और महिमा स्वरूप अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था ही है। इन्हीं में भागीदारी प्रत्येक व्यक्ति में, से, के लिए दायित्व और कर्तव्य रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। यही प्रत्येक मानव वर्तमान में विश्वासपूर्वक जीने की कला है। अतएव यही निष्कर्ष सुस्पष्ट है स्वयं व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के क्रम में ही अर्थशास्त्र का चिंतन होना, अध्ययन होना और जिसका लोकव्यापीकरण होना मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा के लिए अनिवार्य स्थिति है। मानव से सम्पादित होने वाली अर्थात अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन के रूप में व्यक्त होने वाले संपूर्ण व्यवहार कार्यकलाप, जीने की कला है। ऐसे जीने की कला में उपयोगिताएं आवश्यकता के आधार पर प्रसवित होता है। प्रसवित होने का तात्पर्य स्वयं से, स्वयं में, स्वयं के लिए स्फूर्त होने की क्रिया से है।
संपूर्ण आवश्यकतायें परस्परता क्रम में ही आशा, विचार, इच्छा ऋतम्भरा और प्रामाणिकता के रूप में प्रमाणित होती है। अभी तक जितने भी आवश्यकताओं का बोध हुआ है सकारात्मक पक्ष में आहार, आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरदर्शन, एवं दूरगमन