अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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अच्छी तरह से सार्वभौमता, अक्षुण्णता को अनुभव कर सकते हैं। इस विधि से सेवा, व्यवस्था के अंगभूत कर्तव्य के रूप में, व्यवस्था दायित्व के रूप में, उत्पादन आवश्यकता, उपयोगिता, सदुपयोगिता के रूप में, परिवार व्यवहार संबंध, मूल्य, मूल्यांकन अर्पण, समर्पण और उभयतृप्ति के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है। यह अधिकांश मानव में अपेक्षा भी है। इसी विधि से धरती की संपदा संतुलन विधि से सदुपयोग होना स्वाभाविक है, अर्थ का सदुपयोग होना ही आवर्तनशीलता है।

व्यवस्था क्रम में ही परिवार और समाज अपने अखण्डता को पूर्ण विश्वास, सहअस्तित्व, समृद्धि, समाधान सहित प्रमाणित कर पाता है। उपर कहे हुए सम्पूर्ण सभाओं के स्वरूप और विस्तार के आधार पर कर्तव्य और दायित्व, परिवार व्यवहार परंपराएँ मानवीयतापूर्ण विधि से निर्वाह होना स्वाभाविक है। निर्धारित होना, स्वीकृत होना जागृति के आधार पर होता है। जागृति का स्रोत जागृत मानव परंपरा ही होना निश्चित है। इसी से अर्थात् इस जागृत परंपरा विधि से ही संग्रह, द्वेष, भोग-लिप्सा, शोषण, घूसखोरी, बिचौलियापन, प्रदूषण, जनसंख्या वृद्धि सभी विधाओं से आंकलित असमानताएँ सर्वथा दूर होकर मानवत्व के आधार पर हर मानव के साथ सम्पूर्ण मानव का समानता, स्वायत्त परिवार के आधार पर समाधान, समृद्धि सहज तृप्ति में समानता, विश्व मानव परिवार में भागीदारी के आधार पर सहअस्तित्व और वर्तमान में विश्वास, सार्थक हो जा जाता है। फलत: ग्राम और क्षेत्रादि धरती, उससे होने वाली सम्पूर्ण साधन स्रोतों का निर्धारण के आधार पर कितने संख्या में जीने योग्य ग्राम और क्षेत्र हैं अथवा समृद्धि पूर्वक जीने योग्य ग्राम और क्षेत्र हैं, यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। इसी के साथ-साथ जन बल पर और तकनीकी बल पर आधारित युद्ध विचार का उन्मूलन होगा, अभयता पूर्ण अर्थात् वर्तमान में विश्वासपूर्ण विधि से सर्वमानव जीने देने और जीने की विधि समीचीन है।

उपयोग और सदुपयोग, महत्वाकाँक्षा और सामान्य आकाँक्षा संबंधी वस्तुओं का नियोजन ही है व्यवस्था का प्रमाण। यह सार्वभौम व्यवस्था क्रम में होने वाली नित्य प्रमाण है। यही अखण्ड समाज और परिवार मानव विधि से अर्पण-समर्पण विधि से देखा गया है। सम्पूर्ण अर्पण-समर्पण क्रम से शिष्ट मूल्यों में वस्तु मूल्यों को, स्थापित मूल्य में शिष्ट मूल्यों को, मानव मूल्यों में स्थापित मूल्यों को, जीवन मूल्यों में मानव