अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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इतना ही नहीं संग्रह-द्वेष, शोषण, युद्ध के लिए मानव अपने तन, मन, धन रूपी अर्थ का अपव्यय करता ही है।

मानवीयतापूर्ण विधि से स्वायत्त मानव अपने स्वरूप में ही सद्व्ययता और उसके प्रमाणों का धारक-वाहक होना बनता है। इसका मूल तत्व स्वयं पर विश्वास होना ही देखा गया है। स्वयं पर विश्वास होने के मूल में जीवन ज्ञान और अस्तित्व दर्शन ही आधार बिन्दु के रूप में दो ध्रुव स्पष्ट हो जाते हैं क्योंकि अस्तित्व ही स्थिरता के रूप में परमाणु में विकास और जागृति निश्चित है। इसमें अर्थात् मानवीयतापूर्ण विधि में मानव का वर्चस्व अर्थात् गरिमा-महिमा का स्रोत जागृति ही है। जागृति का प्रमाण अस्तित्व में प्रत्येक-एक व्यवस्था के रूप में कार्यरत रहने और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सूत्र में सूत्रित रहने की सत्य में जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना ही है। अस्तित्व में इस तथ्य के प्रति तभी संभव होना पाया गया कि जीवन ज्ञान स्पष्टतया हमें अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित होने के रूप में देखा गया। इस प्रकार जागृति का तात्पर्य सहअस्तित्व में अनुभव मूलक मानसिकता भी होना स्पष्ट है। जबकि अनुभव मूलक विधि से यह स्पष्ट है कि जीवन के मूल बलों का नाम आत्मा, बुद्धि, चित्त, वृत्ति और मन है। इनका स्थिति कार्य रूप अनुभव-प्रमाण, बोध, चिंतन, तुलन और आस्वादन क्रियाएं हैं। यह प्रत्येक मानव में प्रमाणित होने का स्रोत और व्यवस्था है। यही तथ्य मानव अपने में जागृति को आंकलित करने का स्रोत जागृत मानव परंपरा ही है। यही अनुभव सम्मुच्चय का भी स्वरूप है। मन वृत्ति का, वृत्ति चित्त का, चित्त बुद्धि का, बुद्धि आत्मा का अनुभव करता है। क्योंकि हर आस्वादन तुलन के कसौटी में, हर तुलन चिंतन (साक्षात्कार) के कसौटी में, संपूर्ण साक्षात्कार, बोध के कसौटी में, समग्र बोध अनुभव के कसौटी में, संपूर्ण अनुभव अस्तित्व सहज सहअस्तित्व के कसौटी में संतुलित, नियंत्रित होने की जीवन सहज कार्यकलाप को देखा जाता है। यही प्रत्येक व्यक्ति में स्वनियंत्रण का और संतुलन का सूत्र है।

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