अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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शासन संचालन में भी देखा गया है। इन सभी में सुविधा संग्रह आशातीत आश्वासन और सत्ता-संघर्ष, द्रोह-विद्रोह का प्रकटन बना ही है।

शक्ति केन्द्रित आधारों पर पंचायती राज्यों, ग्राम पंचायतों, ग्राम समितियों के नाम से, रूप से सोचा गया है। यह सूझबूझ भी यथावत् शक्ति केन्द्रित होने के कारण शासन संघर्ष, द्रोह-विद्रोह प्रकट होना देखा गया। अतएव इन सब का विकल्प सार्वभौम व्यवस्था मानसिकता ज्ञान विवेक विज्ञान पूर्वक सम्पन्न होना ही एक मात्र शरण है। ऐसी शरणस्थली को पाना, सम्पन्न होना, समृद्धि होना, इसका धारक वाहकता में हर व्यक्ति का भागीदार होना ही इसका गति है। ऐसी गति सम्पन्नता ही मानवाधिकार कहलाता है। यही चेतना विकास मूल्य शिक्षा पूर्वक सफल होने का प्रस्ताव है।

मानवाधिकार की चर्चा-परिचर्चा अंतर्राष्ट्रीय अथवा विश्व मंच पर होता हुआ देखने को मिलता है। यह सारे चर्चा पुन: पैसे पर ही आधारित होना देखा गया। दुखी देश समुदाय खासकर परेशानी से घिर जाने पर उन्हें राहत देने, पहुँचाने की कार्य करना चर्चा का प्रधान मुद्दा है। इसके लिए सभी देश सम्मत होते भी हैं। इसी के साथ यह भी चर्चाएँ मानवाधिकार के मंच पर गुजरती हुई देखी जाती है। लोकमानस के पटल पर ही कुछ तथ्यों को ज्ञापित करने का कार्य भी करते हैं। हर देश की सीमाएँ जो बहुदेशों से स्वीकृत रहता है, उस सीमा रेखाएँ उन्हीं-उन्हीं देशों का संप्रभुता, प्रभुसत्ता प्रभावित देश मानी जाती है। इसका उल्लंघन भी मानवाधिकार का खिलाफ मानी जाती है। कुल मिलकार मानवाधिकार संस्था विपदा-आपदाग्रस्त समुदायों, देशों के निवासियों को राहत पहुँचाने की मंशा और क्रियाकलापों को सम्पन्न करता हुआ देखा जाता है।

आपदा-विपदाएँ सभी देशों में प्रकारांतर से गुजरती ही रहती है। जैसे भूकम्प, असाध्य रोग दरिद्रता, शरीर व्यवस्था दोष (एड्स), युद्ध, बाढ़, चक्रवात और तूफान। ऐसे विपदाओं से घिरे हुए लोगों को आहार, वस्त्र, आवास संबंधी और दवाईयों को उपलब्ध कराने के कार्यक्रम मानवाधिकार का प्रमाण मानी गई है। यथासंभव यह सब कार्यों को सम्पन्न करते भी हैं। इसके लिए सभी देश दान मानसिकता को रखने वाले सभी संस्थाएँ इसमें वित्त सहायता का स्रोत बना हुआ देखने को मिलता है।

मानवाधिकार का हकदार हर मानव का होना ध्वनित होता है। इसके लिए आशय के रूप में सुख-सुविधा के साथ जीना हर मानव को स्वीकृत है। अभी तक सभी देश, सभी