अर्थशास्त्र

by A Nagraj

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रखने में सक्षम हुई है। यह संयोग ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोग से ही सम्पन्न होना सहज रहा है। इस विधि से समझने पर धरती के वातावरण में जो विरल वस्तु का अभावीकरण हो चुका है या होता जा रहा है, वही विशेषकर ब्रह्माण्डीय किरणों को और सूर्य किरणों को धरती में पचने का रूप प्रदान कर देता है। इसी विधि से ब्रहाण्डीय किरणों के संयोगवश पानी का उदय हुआ, वह निकल जाने के उपरान्त अथवा और कुछ वातावरण में विकार के उपरान्त यदि वही ब्रह्माण्डीय किरण, सूर्य किरण पानी में सहज रूप में होने वाली रसायनिक गठन के विपरीत इसे विघटित करने वाली ब्रह्माण्डीय किरणों का प्रभाव पड़ना आरंभ हो जाए उस स्थिति को रोकने के लिए विज्ञान के पास कौन सा उपचार है? इसके उत्तर में नहीं-नहीं की ही ध्वनि बनी हुई है। तीसरा खतरा जो कुछ लोगों को पता है, वह है यह धरती गर्म होते जाए, ध्रुव प्रदेशों में संतुलन के लिए बनी हुई बर्फ राशियाँ गलने लग जाए तब क्या करेंगे? तब विज्ञान का एक ध्वनि इसका उपचार के लिए दबे हुए स्वर से निकलता है- बर्फ बनने वाली बम डाल देंगे। इस ध्वनि के बाद जब प्रश्न बनती है, कब तक डालेंगे? कितना डालेंगे? उस स्थिति में अनिश्चयता का शरण लेना बनता है। इन सभी कथा-विश्लेषण समीक्षा का आशय ही है हम सभी मानव उन्मादत्रय से मुक्त होना चाहते हैं, मुक्त होना एक आवश्यकता है, इस आशय से धरती के सतह में समृद्धि, समाधान, अभय, सहअस्तित्वपूर्वक जीने की कला को विकसित करना आवश्यक है। यही सर्वोपरि बेहतरीन जिन्दगी का शक्ल है। इसमें मानव कुल से द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्ध सर्वथा विसर्जनीय है।

द्रोह का मूल रूप को इस प्रकार पहचाना जाता है पहला- सत्ता संघर्ष इसके स्थान पर सार्वभौम व्यवस्था और ऐसी व्यवस्था में भागीदारी को अपनाना विकल्प है और आवश्यकता है। मानव मानस में व्यवस्था का स्थान आज की स्थिति में भी बनी हुई है। सत्ता शक्ति और केन्द्रित शासन असहअस्तित्व दिशावाही है। जबकि सार्वभौम व्यवस्था समाधान, समृद्धि वर्तमान में विश्वास सहअस्तित्व दिशावाही है। सहअस्तित्व, अस्तित्व सहज रूप में नित्य प्रभावी है। इसलिए सार्वभौम व्यवस्था जीवन सहज रूप में मानव में स्वीकृत है।

द्रोह का विद्रोह सदा ही मानव मानस में बना रहता है। यही अन्तर्विरोध का तात्पर्य है। यही अन्तर्विरोध किसी स्तरीय शासन के विपरीत कार्यकलापों को प्रवृत्तियों को प्रकाशित