अर्थशास्त्र
by A Nagraj
सहअस्तित्व सूत्र निहित है ही। इन्हीं सहअस्तित्व सूत्र के अनुरूप मानव (ज्ञानावस्था की इकाई) जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने की आवश्यकता बनी ही रही है। यह जीवन ज्ञान, अस्तित्वदर्शन विधि से प्रमाणित हो जाती है।
पूर्ववर्ती प्राचीन-अर्वाचीन काल में नैसर्गिकता में भय का ही परिकल्पना कर पाए और वैज्ञानिक विधि से नैसर्गिकता प्रकृति पर विजय पाने की रही। इसका कारण भी उसके पहले रहे आयी भय ही रहा। कोई मानव भय को स्वीकारता नहीं। इसका अभिव्यक्ति भय पर काबू पाने की, अधिकार करने की मंशा से शोषण की ओर गतिशील हो गई। फलत: मानव जाति निर्मम रूप से वन, खनिज का शोषण किया। फलस्वरूप धरती का संतुलन प्रश्नचिन्ह के काँटा पर चढ़ गया।
मानव ही जागृतिपूर्वक धरती का संतुलन को बनाए रख पाता है। भ्रमित होकर धरती के साथ सारा अत्याचार किया। भय और प्रलोभन दोनों भ्रम का ही द्योतक है। भय और प्रलोभन से अधिकांश लोग पीड़ित हैं साथ ही सर्वाधिक लोग ग्रसित हैं। यह अंन्तर्विरोध का कारण बनी हुई है। इसके आगे आस्थाएँ मानव परिकल्पना में आयी, वह भी भय और प्रलोभन में चक्कर काटता हुआ देखने को मिली। दूसरे भाषा में इसका प्रमाण परंपरा स्थापित नहीं हो पाया। इसीलिए आस्था के नाम से कितने भी प्रयास हुए उनका अंतिम परिणाम भय और प्रलोभन के रूप में गण्य हुआ। इन सभी घटनाओं के चलते मानव में मानवीयता का अनुसंधान अपेक्षित रहा। यह जीवन ज्ञान, सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहज रूप में प्रत्येक मानव के स्वीकृति सहज रूप में विवेक-विज्ञान पूर्वक व्यवहार में प्रमाणित होता है। इस क्रम में मानवीयतापूर्ण आचरण ही मानव का शरण है, गरिमा-महिमा है, जागृति को प्रमाणित करने के लिए परमावश्यक है। प्रत्येक मानव में जीवन ज्ञान पूर्वक अस्तित्व दर्शन ही है। यही सम्पूर्ण ज्ञान, विवेक और विज्ञान सम्मत तर्क विधि से मानवीयतापूर्ण आचरण में निरंतर प्रवर्तित करना पाया जाता है। मानव के सर्वेक्षण से पता लगता है प्रत्येक मानव जागृत होना चाहता है। इस क्रम में मानवीय शिक्षा द्वारा ही इन ज्ञान-विज्ञान विवेक का लोकव्यापीकरण सहज है और आवश्यकता भी है। इन्हीं तथ्यों पर आधारित आवर्तनशील अर्थशास्त्र मानवीयतापूर्ण परंपरा में, से, के लिए प्रस्तुत है। इसी से अथवा