अध्यात्मवाद
by A Nagraj
यह सामान्यत: सबको ज्ञात है। सहअस्तित्व सहज विधि से हर अवस्था की वस्तुओं को उन-उन के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के रूप में जानना-मानना अति अनिवार्य स्थिति है इसी के आधार पर पहचानना संभव हो जाता है। सही पहचानना ही निर्वाह करना है और उसके फल में वांछित परिणाम निकलना स्वाभाविक है। बिना जाने-माने किसी चीज को पहचानने जाते हैं आधार विहीन होना पाया जाता है। समझ के करने में हर स्थितियाँ संतुष्टि का कारण बनती है। बिना समझे कुछ भी करते हैं चाहे वह आस्थावादी, प्रलोभनवादी या भयवादी हो वह सदा-सदा पराभव और प्रताड़ना का कारण ही बनता है। इस विधि से सम्पूर्ण भ्रम कार्य व्याख्यायित होता है। कितने भी पीढ़ी भ्रम को बारंबार दोहराते रहें भ्रम का परिणाम पीड़ा ही होना पाया जाता है। भ्रमित परिणाम से मानव संतुष्ट नहीं रह पाता।
मानव भ्रमित कार्य विधियों, कल्पना विधियों से हताश होता है तब भ्रम की पीड़ा अपने पराकाष्ठा में होता है। तभी भ्रम मुक्ति अथवा जागृति विधि का आवश्यकता निर्मित होती है। यह संक्रमण काल में प्रौढ़ और वृद्ध मानवों के साथ गुजरता हुआ स्थितियाँ है।
मानव में तीनों बन्धन की अलग-अलग स्थितियाँ स्पष्ट हो जाती है। इच्छा बन्धन की पराकाष्ठा में बन्धन की पीड़ा, कुण्ठा, प्रताड़ना के रूप में होना देखा गया है। यह मानव परंपरा सहज कार्य-प्रणाली में भ्रमित परंपराओं के रूप में घटित होने वाले परिणाम है। इसमें मुख्य रूप में वैचारिक और व्यवहारिक सामरस्यता की उपेक्षा, उसमें होने वाले विरोधाभास की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि चित्रण कार्य इच्छा बन्धन का सर्वोपरि अहमता के रूप में कार्य को मानव में प्रदर्शित होता है बीसवीं शताब्दी के अन्त तक आजीविका का आधार माना। यह सभी सफलता-विफलताएँ, भय, प्रलोभन, आस्था रूपी आदर्शो और आदर्श के केन्द्रों के रूप में होते आये। इस अवस्था में इस धरती के संपूर्ण मानव में, से केवल आस्थावादी में, से कुछ लोग (कम से कम) होना दिखाई पड़ते है। कुछ अधिक लोग प्रलोभन और आस्था विधि से ही अपनी सार्थकता को माना करते हैं। कुछ कम लोग ही केवल प्रलोभन, भय से प्रताड़ित रहते हैं, इसमें आशा बंधन प्रधान होना पाया गया है।