अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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देकर जीना परिवार में ही प्रमाणित होता है। इसके मूल में मानव में स्वायत्तता अति अनिवार्य स्थिति है। व्यवस्था में जीने का फलन ही समाधान, समृद्धि का प्रमाण और अभय, सहअस्तित्व का सूत्र होना देखा गया है। स्वायत्त मानव का स्वरूप पहले स्पष्ट किया जा चुका है। ऐसे स्वायत्त मानव से जागृतिपूर्ण शिक्षा प्रणाली, पद्धत्ति, नीतिपूर्वक सर्वसुलभ हो जाती है। यही भ्रम (बन्धन) मुक्त मानव परंपरा का सूत्र है। इसके क्रियान्वयन क्रम में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था, ग्राम परिवार और विश्व परिवार के रूप में गठित होने, साकार होने और क्रियारत होने की पूर्ण संभावना, आवश्यकता का संयोग होता है ।

यह स्पष्ट हो गया कि बन्धन किसको, क्यों, कैसे होता है? बन्धन में होता कैसा है? भ्रम बन्धन का पीड़ा किस विधि से बलवती होती है? कौन-कैसे भ्रम बन्धन से मुक्त होता है? इसमें मुख्य बिन्दु जीवन ही जागृतिपूर्वक भ्रम बन्धन से मुक्त होता है, यह स्पष्ट हो चुका है।

जीवन सहज दस क्रिया क्रियाओं में जिसका विशद् विस्तार स्वरूप 122 आचरणों के रूप में तालिका में स्पष्ट किया जा चुका है। उक्त तालिका के अनुसार जागृत आचरणों के विधिवत अध्ययन के लिए मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान” के नाम से शास्त्र प्रस्तुत हो चुकी है। यहाँ जीवन के दस क्रिया सहज कार्य विधि से और ये परस्पर प्रेरित, संयोजित कार्य विधि में जागृति का स्वरूप क्रम और बन्धन मुक्ति क्रम को जैसा देखा गया है वैसा ही प्रस्तुत किया गया है।

जीवन में मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि और आत्मा पाँच अक्षय बल तथा आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रामाणिकता रूपी पाँच अक्षय शक्तियाँ प्रमाणित होने के लिए तत्पर है। जिनमें से आशा, विचार, इच्छा रूपी शक्तियाँ शरीर को जीवन मानते हुए शरीर को ही सुख का स्त्रोत मानते हुए, बँटवारा को व्यवस्था का आधार मानते हुए और वस्तुओं को ज्यादा से ज्यादा संग्रह करना सुख का साधन मानना यही सब प्रधानत: भ्रम रूपी कार्यकलाप का स्वरूप बतायी रहती है। इस क्रम में प्रधानत: शरीर के आयु के अनुसार प्रलोभन विधि से उत्साहित करना-होना, पराभावित होना देखा गया है।