अध्यात्मवाद
by A Nagraj
‘भ्रम और बन्धन’ की पीड़ा की पराकाष्ठा किसी न किसी को होना आवश्यक था। यह नियतिक्रम में विधिवत घटित हो ही जाता है क्योंकि अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में परम लक्ष्य स्थिति निश्चित और स्थिर है। क्योंकि अस्तित्व स्थिर है, जागृति निश्चित है। इसे प्रमाणित होने के लिये, करने के लिये सहअस्तित्व सहज क्रिया, प्रक्रिया, प्रणाली, पद्धतियाँ अस्तित्व और जागृति के मध्य में सुस्पष्ट है। अस्तित्व का होना नित्य वर्तमान के रूप में दृष्टव्य है। सहअस्तित्व में ही ज्ञानावस्था सहज मानव प्रकृति जड़-चैतन्य के संयुक्त रूप में परम्परा सहज विधि से जागृति सहज प्रमाण होना पाया जाता है।
मानव परंपरा जागृति क्रम में इस शताब्दी के अंतिम दशक तक जूझता ही रहा है। अब जागृत परंपरा के रूप में प्रमाणित होने का सहज समीचीनता देखने को मिल रहा है क्योंकि अनुभवमूलक संप्रेषणा सुलभ हो गया है। इसी के प्रमाण में यह ग्रंथ सूचना के रूप में प्रस्तुत है। प्रमाण का स्त्रोत हर जागृत मानव ही है। अनुभव प्रमाण परंपरा में मानव ही मानव के लिये प्रेरक, कारक होने की विधि से लोकव्यापीकरण करता है।
भ्रम मुक्ति की कल्पना मानव परंपरा में आदिकाल से अथवा सुदूर विगत से रही है। अर्थात् भ्रम से मुक्त होने का आश्वासन वाङ्गमयों में सुदूर विगत से सुनने को मिलता है, उनका भाषा जीवन मुक्ति रही है। भाषा के रूप में यह प्रचलित है ही। मुख्य रूप में बंधन का स्वरूप, मुक्ति की आवश्यकता, उसकी समीचीनता और लोकव्यापीकरण यही मुख्य मुद्दा जागृतिपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये वस्तु रहा आया। यही अभी अनुभवमूलक विधि से अनुभवगामी प्रणाली पूर्वक अस्तित्व बोध, सहअस्तित्व बोध, विकास बोध, जीवन बोध, जीवन जागृति बोध, रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना बोध संभव हो गया। ऐसे बोध कराने के क्रम में एक से अधिक मानव बोध सम्पन्न हो चुके हैं। इसी प्रमाण से यह पता लगता है कि इसका लोकव्यापीकरण संभव है।
मूल व्यक्ति, जो अनुसंधान पूर्वक सत्यापित करता है, वह सत्य, समाधान, न्याय और जागृति के संबंधों में स्वयं को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। ऐसे सत्यापन को ही वाङ्गमय कहा जा सकता है। यह दोनों स्थिति घटित होने के