अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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मानसिकता में जन्म से ही न्याय का अपेक्षा बना रहना सर्वेक्षित हुआ। कुछ समाज सेवी संस्था भी न्याय के नाम से अपेक्षाओं को व्यक्त करते ही है। इस दशक तक न्यायालयों में न्याय का स्वरूप स्पष्ट नहीं है। लोक मानसिकता में न्याय सहज अपेक्षा बढ़ता हुआ देखने को मिलता है। प्रिय, हित, लाभ दृष्टियों से अभी तक किये गये क्रियाकलापों से अधिकांश पराभव, विरक्ति ही हाथ लगा है। यहाँ विरक्ति का तात्पर्य किया गया का व्यर्थता को स्वीकारने से है। यह जीवन क्रिया सहज जागृति क्रम का एक सूत्र है।

भ्रमित मानव क्रियाकलाप के कारण धरती का असंतुलित होना प्रदूषण का अत्याधिक बढ़ना जिसके परिणाम स्वरूप धरती के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगना हुआ। जनसंख्या का दबाव, मानव में प्रलोभन की पराकाष्ठा, भोग, अतिभोग मानसिकता और परस्पर द्वेष, शोषण, छीना-झपटी, लूटमार, युद्ध, बलात्कार जैसी अनेक घटनाएँ मानव के लिए पीड़ा की पराकाष्ठा बन चुकी है। मानव ने पीड़ा से मुक्ति के लिए प्रयत्न और अनुसंधान किया जिसके फलस्वरूप जागृति का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसी आशय से “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” प्रस्तुत है।

आशा बन्धन के साक्ष्य में जीने की आशा विधि से सुखी होने के उद्देश्य से इन्द्रिय आस्वादन के लिए चार विषयों को लक्ष्य मान लेना बनता है। इसी के साथ जीवन शक्तियों को लगाने में तत्परता ही बन्धन के स्वरूप में होना देखा जाता है। इस स्थिति में किया जाने वाला भोग विधि भ्रम के रूप में गण्य होता है। आशा और विचार बन्धन के रूप में जब जीवन शक्तियाँ कार्यरत होते हैं तमाम तर्क और वाङ्गमय व्यक्त होना आरंभ होता है। जो जिस वाङ्गमय को प्रस्तुत करता है उसे सर्वाधिक सत्य मान लेता है। ऐसे ही भ्रमावस्था में दूसरे विधि से लिखे गये सभी वाङ्गमय को अपना विरोधी मान लेता है। जो मूल व्यक्ति वाङ्गमय स्थापित किया, जिसके प्रति लोगों की आस्था हो गई यही एक समुदाय और ऐसे अनेक समुदाय इस धरती पर होना देखा गया है। ऐसी परम्पराएँ किताब को प्रमाण माना। ऐसी अनेक आदर्श किताबें स्थापित हुई। उस-उस परंपरा में उन-उन किताबों का अनुमोदन, समर्थन करने वाले व्यक्ति आदर्श, शिष्ट व्यक्ति के रूप में मानने के लिए लोक मानस तत्पर रही है। इस दशक में भी इस प्रकार की