अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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मूलत: यह घटना स्वयं अनुभव ही है। अनुभव सहज विधि से ही जागृति और जागृति का प्रमाण सहज रूप में समीचीन रहता है। इसलिये अनुभव के अनन्तर अनुभव की निरन्तरता होती ही है। यही अस्तित्व सहज वैभव के रूप में न्याय, धर्म, सत्य रूपी जीवन स्वीकृत वस्तु को देखा गया। सटीक देखने का भाषा ही है अनुभव क्रिया। ऐसे अनुभव में समाधान और न्याय समाहित रहता ही है। इसी प्रकार चिन्तन में अर्थात् साक्षात्कार क्रिया में समाधान और सत्य साक्षात्कारित रहता ही है। इतना ही नहीं व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के अर्थ में जीने की स्थिति में न्याय, समाधान और सत्य व्यवहार में प्रमाणित रहता ही है। यही अनुभवमूलक अध्ययन है। अनुभवमूलक जीने की सम्पूर्णता मानव परंपरा में ही परमावश्यकता के रूप में दिखाई पड़ती है। इसकी समीचीनता अर्थात् भ्रम की पीड़ा और निर्भ्रमता या जागृति की समीचीनता, योग, संयोग की घटना विधि से सम्पन्न होना भी आवश्यक रहा। इसके अनन्तर ही इसके लोकव्यापीकरण की गति अपने आप शुरु होती है। यह स्वाभाविक रूप में सर्वमानव में स्वीकृत रहता ही है। जैसे न्याय सबको चाहिये, धर्म अर्थात् सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज होना चाहिये, सत्य समझ में आना चाहिये। क्योंकि ये जीवन सहज स्वीकृति होने के कारण इन्हें बिना समझे जीवन स्वीकारा ही रहता है। इसीलिये यह सबके लिए आवश्यक है।

मुक्ति का स्वरूप और प्रमाण

प्राचीन समय से अथवा सुदूर विगत से बन्धन और मोक्ष की चर्चाएं हुई हैं। बन्धन मूलत: भ्रम का ही स्वरूप होना स्पष्ट हो चुका है। ऐसा भ्रम भयवश जागृति की अपेक्षा रहते हुए भी जागृति होने पर्यन्त रहता है यह भी मुद्दा स्पष्ट हो चुका है। इसके उपरान्त जागृति और जागृतिपूर्णता ही मंजिलों के रूप में देखने को मिलता है। यह मूलत: विचार, चित्रण, अवधारणा, अनुभव और चिन्तन का ही वैभव रूपी मानसिकता के रूप में देखा गया है। भ्रम का सम्पूर्ण स्वरूप आशा, विचार, इच्छा (चित्रण) का प्रिय, हित, लाभात्मक दृष्टियों की क्रियाशीलता ही है। भय, प्रलोभनात्मक प्रणाली में व्यवस्था की परिकल्पना मानव को स्वार्थी, अज्ञानी, पापी, गलती और अपराध करने वाला है; ऐसा मानते हुए सम्पूर्ण योजनाओं को स्थापित करना ये भ्रमात्मक कार्यकलापों का विस्तार है। यही परम्परा के रूप में अनुवर्ती