अध्यात्मवाद
by A Nagraj
आशा और विचार बंधनपूर्वक ही आस्था, प्रलोभन और भय से पीड़ित होना रहता है और केवल आस्था में सफलता को खोजने वाले लोग न्यूनतम रहते हैं इनका अंतिम लक्ष्य स्वांत: सुख ही रहता है। ये सब जब तक लोक सम्मान मिलता हुआ स्थिति में प्रसन्नता को और न मिलने की स्थिति में अप्रसन्न रहता हुआ देखने को मिलता है।
आशा बन्धन इन्द्रियों द्वारा सुखी होने के लिए दौड़ लगाने के लिये सभी क्रियाकलाप के रूप में गण्य है। विचार बन्धन कोई भी व्यक्ति अथवा समुदाय अपने विचार को श्रेष्ठ मानने की विधि से स्पष्ट होता है। इच्छा बन्धन, ज्यादा से ज्यादा रचना कार्य की श्रेष्ठता को स्पष्ट करने के क्रम में स्पष्ट होता है। यह भी चित्रण विधि से स्पष्ट होता है।
ऊपर स्पष्ट किये गये विश्लेषणों से भ्रम का स्वरूप और भ्रम का पीड़ा कैसे हो पाता है इन तथ्यों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। निर्भ्रमता और जागृति के संबंध में भी अनुभवमूलक प्रणाली और पद्धति से संबंधित सभी मुद्दों पर प्रकाश डाला है। इसी को आगे और स्पष्ट करने के लिये व्यवहारिक प्रमाणों में प्रमाणित करने योग्य संप्रेषणा प्रस्तुत है। अनुभवगामी विधि में न्याय, धर्म (समाधान) और सत्य साक्षात्कार एक साथ ही होना पाया जाता है। यह इस छोर से जुड़ा हुआ देखा गया है कि भ्रम से पीड़ित होने के साथ ही जीवन स्वीकृति सहज वस्तुओं की अति अनिवार्यता बन जाती है। इसी अनिवार्यतावश जीवन में इन्द्रिय लिप्सा से मुक्ति चाहने की आवश्यकता अपने पराकाष्ठा में बलवती हुआ रहता ही है। इसे योग-संयोग विधि से ही देखा गया है। यह संयोग अपने आप अस्तित्व सहज विधि से सहअस्तित्व प्रणाली से नियति क्रम के रूप में समीचीन रहता है। यह पीड़ा और नियति सहज समीचीनता का संयोग ही है। ऐसी घटना सर्वप्रथम किसी एक व्यक्ति के साथ घटित होता है अथवा एक व्यक्ति के द्वारा उद्घाटित हो पाता है। इसी को हम अनुसंधान या अभ्यास का फलन नाम दिया करते हैं। उक्त विधि से घटित अनुसंधान को शैक्षणिक विधि से लोकव्यापीकरण करना-कराना आवश्यकीय कार्य रहता ही है। अनुसंधान के अनन्तर यही अग्रिम-प्रक्रिया है। यह सर्वविदित है।