अध्यात्मवाद
by A Nagraj
लिये प्रयोजित ब्रह्म, ईश्वर, परमात्मा नाम लेकर इसे अव्यक्त मानना, इसे वाणी से उद्घाटित नहीं किया जा सकता है-ऐसा मानना भ्रम की पराकाष्ठा है।
‘जीवन’ नित्य होने के कारण अर्थात् ‘जीवन’ अपने स्वरूप में नित्य और अमर होने के कारण अस्तित्व में ही वर्तमान रहता है। यही शरीर यात्रा समय में मानव कहलाते हैं, शरीर त्यागने के उपरांत यही देवी देवता, भूत-प्रेत कहलाते हैं। इसके विपरीत देवी-देवताओं को अव्यक्त, अदृश्य, नहीं समझ में आने योग्य मानना, इसे समझने के लिये अनिश्चित समय तक ध्यान, उपासना, आराधना प्रार्थना करना है-ऐसा प्रमाण विहीन उपदेश देते हैं। यह सर्वथा भ्रम है।
अस्तित्व में अनुभव ही परम प्रमाण के रूप में सर्वतोमुखी समाधान सहज विधि से प्रमाणित होता है। हर व्यक्ति जागृतिपूर्वक इसे प्रमाणित कर सकता है। इसकी आवश्यकता सब में विद्यमान है यही सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज है। इसके विपरीत यह मानना सर्वथा भ्रम है कि समाधान अपना-अपना और सत्य अपना-अपना होता है।
हर मानव समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व व उसकी निरंतरता विधि से जीना चाहता है। इसके लिये अनुभवमूलक शिक्षा-संस्कार विधि समीचीन है। इसके विपरीत यह मानना कि मानव कभी सुधर नहीं सकता यह सर्वथा भ्रम है। हर मानव संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति पूर्वक परिवार मानव होना चाहता है इसके नित्य सफलता के लिये मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार समीचीन है। यह अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित होना पाया जाता है। मानव संबंधों में निरंतर मूल्यों का अनुभव कर सकता है। इसे सफल बनाने का कार्य-विचार-व्यवहार विधि को अनदेखी करते हुए यह मानना कि बैर विहीन परिवार नहीं हो सकता और बैर रहेगा ही, दुख रहेगा ही इन्हें सत्य कहकर अपने भ्रम को दूर-दूर तक फैलाना है।
यह देखा गया है कि जागृत प्रमाणित व्यक्ति से हम प्रेरणा पाकर स्वयं जागृत होना नियति सहज है, इसकी संभावना नित्य समीचीन है। इसे पहचानने के स्थान पर और व्यवहार में न्याय प्रमाणित करने के स्थान पर यह मानना कि देवी, देवता, सिद्ध लोग ही हमको तारेगें, हम स्वयं से तरने योग्य नहीं है, सर्वथा भ्रम है।