अध्यात्मवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 74

परमाणुओं में ही विकास क्रम, विकास प्रमाणित होता है और विकास प्रमाणित होने के लिये प्रस्थापन-विस्थापन अनिवार्य रहता ही है और अनेक यथास्थितियों के लिए सार्थक है।

चैतन्य इकाई रूपी परमाणु ‘जीवन’ में प्रस्थापन, विस्थापन सदा-सदा के लिये शून्य रहता है। इसी आधार पर मध्यांश रूप में एक ही अंश कार्यरत रहता है। फलस्वरूप भारबन्धन से मुक्त रहता है। भारबन्धन से मुक्त होने का फलन है अणुबन्धन से मुक्त होने का सूत्र। गठनपूर्णता के अनन्तर स्वाभाविक रूप में परिणाम का अमरत्व जो परमाणु में क्रिया का आशय अथवा दिशा बनी रहती है, जिसके आधार पर ही विकास के साथ जागृति सुनिश्चित बनी रहती है। विकास का मंजिल ही परिणाम का अमरत्व होना देखा गया है। यह भी देखा गया है परावर्तन, प्रत्यावर्तन मध्यस्थ क्रिया का नित्य कार्य है। क्रियापूर्णता व आचरणपूर्णता, जागृति का द्योतक होना स्पष्ट हो चुकी है। क्रियापूर्णता पूर्वक ही मानवीयतापूर्ण संचेतना (जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना) सार्थक हो जाता है। आचरणपूर्णता में जागृति पूर्णता, गति का गंतव्य सार्थक होना देखा गया है। यही मुक्ति पद का प्रमाण है। दिव्यमानव का स्वरूप यही है।

‘दिव्यमानव’ पद में दृष्टा-पद प्रतिष्ठा सार्थक अर्थात् सम्पूर्ण अभिव्यक्ति हो जाता है। यही ‘दिव्यमानव’-देवमानव और मानव के लिये प्रेरक होते है। सभी दिव्यमानव का समान कारकता, प्रेरकता प्रमाणित होती है। क्योंकि सम्पूर्ण सार्थक प्रेरणाएँ मानवापेक्षा, जीवनापेक्षा के अर्थ में ही होता है। यही ‘दिव्यमानव’ अमानव को मानव पद में स्वत्व, स्वतंत्रता अधिकार पूर्वक जीने की कला सहित प्रेरक होना पाया जाता है। इस धरती में एक भी आदमी पशु मानव-राक्षस मानव पद को स्वीकारते नहीं है। यही जागृति पूर्णता की अपेक्षा बनी ही रहती है। जागृति और जागृतिपूर्णता की सहज संभावना जागृत परंपरा के रूप में समीचीन रहना आवश्यक है। अनुसंधान के रूप में समीचीन रहता ही है।

जीवन में आत्मा अविभाज्य स्वरूप है। यह मध्यस्थ क्रिया होने के कारण ही जीवन सहज संपूर्ण क्रियाकलाप को नियंत्रित, संतुलित और प्रेरित करता ही है। यह भी स्पष्ट हो चुका है आत्मा ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहित अनुभव क्रिया के रूप में