अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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वैभवित होना फलस्वरूप जीवन के क्रियाकलापों में अनुभव ही प्रभावशील होना देखा गया है। यही अनुभव जागृतिपूर्णता का स्वरूप होने के कारण स्वाभाविक रूप में अनुभव को संप्रेषित करना सहज सुलभ, अनिवार्य और परम प्रमाण होना स्पष्ट है।

जागृति पूर्णता पूर्वक ही अस्तित्व में दृष्टा वैभव मानव परंपरा में ही समीचीन होने की सत्यता को स्पष्ट किया जा चुका है। ऐसी महिमा सम्पन्न जागृति अर्थात् अनुभव से यह सत्यापन स्वाभाविक है कि मूलत: अस्तित्व ही सम्पूर्ण दृश्य है और दृश्यमान है। दृश्यमानता देखने का तात्पर्य में, समझने के विधि से सम्पूर्णता समझ में आता है।

अस्तित्व ही सहअस्तित्व सहज परम सत्य है। इसे स्थिति सत्य के रूप में देखा गया है। स्थिति सत्य अपने स्वरूप में ही दृष्टा सहित सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति है। इस प्रकार सम्पूर्ण अस्तित्व ही दृश्य, दृश्यमान फलत: समझ में आने में, अनुभव में स्पष्ट होती है जिसका सत्यापन स्वाभाविक है। यही अनुभव प्रमाण अभिव्यक्त, संप्रेषित, प्रकाशित होने का सूत्र है।

सहअस्तित्व सहज अस्तित्व नित्य वर्तमान और व्यक्त है। अव्यक्त के रूप में कोई वस्तु अस्तित्व में नहीं है। अस्तित्व में ‘अव्यक्त’ नाम से इंगित कोई वस्तु है ऐसा मानना, समझना भ्रम है।

‘अनुभव’ अस्तित्व में, से, के लिये होने के आधार पर संपूर्ण अनुभव संप्रेषणा योग्य है। इसके विपरीत अनुभव एक दूसरे को बताने योग्य नहीं है ऐसा मानना भ्रम है, भ्रम की पराकाष्ठा है।

‘अनुभव’ अस्तित्व में, अस्तित्व से और अस्तित्व के लिये ही होता है। इसके पुष्टि में चैतन्य इकाई रूपी जीवन अस्तित्व में अविभाज्य है, सत्ता में संपृक्त है। सत्ता पारदर्शी और पारगामी होना-अनुभव में स्पष्ट होती है। इसके विपरीत कोई भी सम्पूर्णता को देख सके, सत्यापित कर सके, यह संभव नहीं है। सत्ता सहज व्यापकता, पारगामीयता-पारदर्शीयता को जागृत जीवन अनुभवपूर्वक सत्यापित करता है, सभी जागृत जीवन सत्यापित कर सकते हैं। इसके विपरीत सत्ता सहज वस्तु के