अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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सुनने देखने की क्रिया को पूरा करता है। पढ़ना भी सुनना ही है। यह जिम्मेदारी के साथ पढ़ने पर सुनना बनता है, इसको देखा गया है।

चित्रण विधि का अनेक विधियाँ बनते हैं। जागृत व्यक्ति अपने उद्गार को चित्रित कर सकते है और भाषा-साहित्य को कला सहित सत्य आस्वादन सूत्र से सूत्रित कर सकते हैं। विचार और चिन्तनशीलता के लिये अबोध व्यक्ति में अनुमान सहज मानसिक परिस्थितियाँ बनता है और जागृत व्यक्ति के सम्मुख अनुभव सहज कसौटी में परीक्षण करने के लिये सहज वस्तु के रूप में होते है। अतएव सत्यबोध और अनुभव जिनमें सम्पन्न हुआ रहता है उनका अनुमोदन और मूल्यांकन सदा-सदा उपलब्ध रहता है। इसी प्रामाणिकता पूर्ण परंपरा क्रम में हर बिन्दुओं, हर आयामों, दिशा, कोण, परिप्रेक्षयों में सार्थकता सहज मूल्यांकन होता है फलस्वरूप समाधान केन्द्रित विधि से सम्पूर्ण आयामों में मानव सहज जागृति सार्थक होना स्वाभाविक है। इसलिये जागृत परंपरा की आवश्यकता है।

स्पष्ट रूप में यह विदित है कि अस्तित्व में व्यवस्था का मूल स्रोत और आधार परमाणु ही है। हर प्रजाति सहज परमाणु में मध्य में अंश अथवा अंशों का होना देखा गया है। इसी के साथ जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में मूलत: परमाणुएँ विभाजित है। जड़ परमाणुएँ अणु और अणुरचित रचना सहित भौतिक-रासायनिक क्रियाकलापों में भागीदारी करना देखा जाता है। चैतन्य प्रकृति जीवनी क्रम, जागृति क्रम, जागृति और जागृति पूर्णता को प्रकाशित करने, व्यक्त करने और संप्रेषित करने/होने के क्रम में दृष्टव्य है। चैतन्य परमाणु में भी मध्यांश का होना स्वाभाविक है और देखा गया है। चैतन्य परमाणु में मध्य में एक ही अंश होता है और मध्यस्थ क्रिया के रूप में वह सतत् कार्यरत रहता है। जबकि जड़ परमाणुओं में भी मध्यस्थ क्रिया सहज कार्य करने वाला एक ही अंश होता है, परन्तु मध्य में एक से अधिक अंशों का समावेश भी रहता है। इसमें खूबी यही है जड़-परमाणुओं में मध्यांश के मध्यस्थ क्रिया सहज कार्य करने वाले और भी अंश उसके साथ जुड़े रहते है, कुछ अंश मध्य भाग में रहते हुए सम-विषमात्मक कार्य के लिये संतुलित बनाने के लिए सहायक बने रहते हैं। यही मुख्य कारण है जड़ परमाणुओं में प्रस्थापन-विस्थापन होने का। इसकी आवश्यकता इसलिये अनिवार्य है कि