अध्यात्मवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 72

अर्थात् जड़-चैतन्य प्रकृति में स्थिति पूर्ण सत्ता पारगामी होने का फलन ही है कि संपूर्ण प्रकृति सत्ता में भीगी है। फलस्वरूप बल सम्पन्नता के रूप में प्रमाणित है। सत्तामयता का प्रभाव पारगामीयता और पारदर्शिता के रूप में व्यक्त है। इसी विधि से एक परमाणु अंश के रूप में और बड़े से बड़े ग्रह-गोल जितने भी स्वरूप दिखाई पड़ते है, उन सबमें स्थिति पूर्ण सत्ता पारगामी होने के फलस्वरूप उनमें प्रकाशमानता, क्रियाशीलता और उसके मूल में बल सम्पन्नता का होना मानव सहज प्रज्ञा में (ज्ञानगोचर विधि से) देखना-समझना बन चुका हैं।

दृष्टा पद प्रतिष्ठा की अभिव्यक्ति जागृत जीवन एवं जागृति पूर्ण मानव परंपरा में प्रमाणित होना ही ज्ञानावस्था की मौलिकता है। अर्थात् जागृतिपूर्ण जीवन मानव परंपरा में ही व्यक्त होता है। इसी अभिव्यक्ति में दृष्टा पद प्रतिष्ठा प्रमाणित होता है। दृष्टा पद जागृति का स्वरूप है। शरीर के द्वारा ‘जीवन’ व्यक्त होना जीवावस्था से ही प्रमाणित है जबकि मानव शरीर द्वारा जीवन लक्ष्य सहज जागृति प्रमाणित हो जाता है। इस अभिव्यक्ति में मध्यस्थ सत्ता, मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ जीवन सहज प्रमाण ही मानव परंपरा का एकमात्र सहज मार्ग है। अतएव मानव परंपरा की अनिवार्यता सहज ही विदित होता है। अस्तित्व स्वयं नित्य सहअस्तित्व है इसलिये जागृत जीवन सहअस्तित्व में तृप्त होता है। ऐसी तृप्ति का बहुमुखी अभिव्यक्ति ही परंपरा के नाम से ख्यात होता है। अस्तु, मध्यस्थ जीवन, मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ सत्ता, बल और शक्ति सहज वैभव के संबंध में प्रतिपादन और व्याख्याएँ प्रस्तुत है। यही मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद है।

अनुभव परंपरा में यह देखा गया है कि मानव ही प्रमाण का आधार और गति है। अभिव्यक्ति संप्रेषणा क्रम में वाङ्गमय एक साधन है। वाङ्गमय में कहा हुआ, सुना हुआ, इंगित किया हुआ और इंगित हुआ, अनुमान प्रस्तुत किया गया, अनुमान सम्पन्न हुआ गया बोधगामी हुआ और बोधगम्य हुआ। इन स्थितियों को वाङ्गमय में कहा-सुना ही जा सकता है। इससे अधिक कुछ होता है - अवधारणा और बोध संबंधी अनुमान ही बन सकते हैं। इसी अनुमान के पुष्टि में चित्रण-चित्र को देखने का स्वीकृति भी होना पाया जाता है। इसी प्रकार संपूर्ण चित्रण और वाङ्गमय