अध्यात्मवाद
by A Nagraj
आवश्यकतानुसार अनुसंधान न करते हुए और इसके विपरीत दासता अर्थात् ईश्वर के प्रति दासता और सामुदायिक धर्म और सामुदायिक राज्य के प्रति दासता को स्वीकार करने के लिये परंपरागत विधि से कार्यक्रमों को प्रस्तुत करना अथ से इति तक भ्रम है। जागृति सहज प्रमाण यही है हर व्यक्ति में पाये जाने वाले कल्पनाशीलता के तृप्ति बिन्दु रूपी परिवार मूलक व्यवस्था में पारंगत बनना और बनाने के लिए सहमत होना और कर्म स्वतंत्रता का तृप्ति बिंदु रूपी स्वानुशासन सहज स्वतंत्रता प्रमाणों के रूप में प्रमाणित होता है। इसे करना, कराना ही एकमात्र उपाय है। यह इस दशक से समीचीन हो गया है।
हर मानव में जागृतिपूर्वक चारों अवस्था में वैभवित वस्तुओं को उन-उन के स्वभाव गति प्रतिष्ठा में जानने, मानने, पहचानने व निर्वाह करने का अर्हता रहता ही है। उस अर्हता के अनुसार शिक्षा-संस्कार को संपन्न करने की योग्यता से वंचित रहकर उसके विपरीत आवेशित गति को ही “वैभव और आवश्यक” मानते हुए, मनाने का जितना भी कार्यकलाप है (शिक्षा, संस्कार सहित) वे सभी अथ से इति तक भ्रम है। क्योंकि सम्पूर्ण अस्तित्व सहअस्तित्व के रूप में विकास, जीवन, जीवन जागृति प्रतिष्ठा ही है।
हर व्यक्ति स्वयं में स्थिति और गति की अविभाज्यता और स्वभाव गति प्रतिष्ठा में परम जागृति होना एवं दूसरे के लिये पूरक होना चाहता है और ऐसा होने के लिये अर्थात् प्रमाणित होने के लिये सम्पूर्ण अनुभवमूलक विधि सहज पारंगत प्रणाली समीचीन है। इसे अनदेखी करते हुए आवेशित गति और संघर्ष के लिये मानव परंपरा को प्रेरित और विवश करना और रहना अथ से इति तक भ्रम है।
हर मानव चारों अवस्थाओं को उन-उनके स्वभाव गति प्रतिष्ठा को जानने, मानने और पहचानने, निर्वाह करने योग्य हैं। साथ ही रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना को स्वीकारने और जीवन के अमरत्व को समझने, स्वीकारने योग्य और सत्य बोधपूर्ण होने योग्य और अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित करने-कराने योग्य हैं। इन्हें अनदेखी करते हुए शरीर को ही जीवन समझते हुए, समझदार होने का दावा करते हुए इस पर लिये गये निर्णयों के अनुसार स्थापित किये गये परंपरा अथ से इति तक भ्रम है। इतना ही नहीं शरीर को ही जीवन समझाने के क्रम में ही मानव