अध्यात्मवाद
by A Nagraj
समझ ही प्रमाणपूर्वक परंपरा में लोकव्यापीकरण होने की वस्तु है और अनुभव ही व्यवहार में न्याय, धर्म और सत्य सहज विधि से प्रमाणित होती है। यह लोकव्यापीकरण होने के लिये परंपरा को जागृत रहना आवश्यक है।
आँखों से जो कुछ भी दिखता है वह किसी वस्तु के रूप (आकार, आयतन, घन) में से आंशिक भाग दिखाई पड़ता है। रूप का भी सम्पूर्ण भाग आँखों में आता नहीं। जबकि हर वस्तु, रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के रूप में अविभाज्य वर्तमान है। यह जागृतिपूर्ण शिक्षा विधि से लोकव्यापीकरण होता है।
मानव से रचित यंत्र और मापदण्ड से मानव को प्रमाणित करना संभव नहीं है। परन्तु यह संभव है ऐसा मानना और शिक्षापूर्वक मनाना अत्यंत भ्रम और गलती है। जबकि मानव ही यंत्र और मापदण्ड को प्रमाणित करता है। इसके मूल में भी मानव की मान्यता ही रहती है। उल्लेखनीय घटना यह है कि विज्ञान अपने यंत्र प्रमाण के आधार पर अपने सभी बातों को मनवाता आया। इसके पहले आदर्शवादियों ने प्राकृतिक घटनाओं और विपदाओं के आधार पर ईश्वर और ईश्वरीयता को मनवाया। जबकि यह दोनों भ्रम ही रहा। क्योंकि हर मानव जागृतिपूर्ण स्थिति में सम्पूर्ण यंत्रों और मापदण्डों से बहुत बड़ा दिखाई पड़ता है। सभी यंत्रों का चित्रण और रचना मानव ने ही किया है, यह स्पष्ट है। एक मानव जो किया है उसे हर मानव कर सकता है, जो सीखा है सभी व्यक्ति सीख सकता है। इस प्रकार इन दोनों से सभी मानव का समानता समझ में आता है। इस धरती पर अनेकानेक शताब्दियों से मानव का आवास होते हुए अभी तक यह वर्गीकृत, रेखाकरण सम्भव नहीं हो पाया कि एक व्यक्ति जो करता है, सीखता है उसे दूसरे वर्ग, संप्रदाय, मत, पंथ, धर्म कहलाने वाले सीखता नहीं है, कर नहीं सकते हैं। यह स्पष्टतया परंपरा में देखने के उपरान्त भी गोरे-काले का आवाज पंथ, संप्रदाय, मतों और धर्म के नाम से द्वेष और संघर्ष को निर्मित करने वाला आवाज देखने-सुनने में आ ही रहा है। यह अथ से इति तक भ्रम और गलती है।
मानव धर्म अर्थात् सर्वतोमुखी समाधान पर आधारित व्यवस्था में जीने देकर जीना है। इसकी सार्वभौमता सर्व स्वीकृत है। समुदाय परंपराओं में धर्म के नाम पर अनेक मान्यताओं को द्वेष सहित समुदाय के जनमानस को मनाना और स्वयं