अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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बनाये रखते हुए नित्य वैभव को नियंत्रित किये रहना ही परंपरा के रूप में मध्यस्थ क्रिया सहज मौलिकता है।

अस्तित्व में विकासक्रम विधि से सम्पूर्ण भौतिक और रासायनिक वस्तुओं और द्रव्यों का रचना लक्ष्य उसके पुष्टि में विरचना कार्य; परंपरा के रूप में होना स्पष्ट किया जा चुका है। सम्पूर्ण रचना में अणु, अणु रचित और कोषा रचित रचनाओं में अपने-अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में वंशानुषंगीय मध्यस्थ क्रिया को प्रकाशित, प्रमाणित करता हुआ देखने को मिला है। इसी क्रम में परिणामानुषंगीय, बीजानुषंगीय और वंशानुषंगीय रचना एवं कार्यों के रूप में स्पष्ट है। जीवनी क्रम में ‘जीवन’ वंशानुषंगीय संतुलन और ‘त्व’ सहित व्यवस्था अर्थात् वंशानुषंगीयता के ‘त्व’ सहित व्यवस्था को प्रमाणित करने के अर्थ को स्पष्ट हुआ है और अध्ययन गम्य है। यही संतुलन और व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण ही मध्यस्थ क्रिया का होना है। मूलत: जीवन सहज चैतन्य प्रकृति में से चैतन्य पद प्रतिष्ठा को संतुलित बनाये रखना तात्विक रूप में मध्यस्थ क्रिया है क्योंकि मध्यस्थ क्रिया मध्यांश या नाभिकीय क्रिया की महिमा होना पहले से स्पष्ट है। चैतन्य इकाई में मध्यस्थ क्रिया गठनपूर्णता और उसकी निरन्तरता को बनाये रखने में कार्यरत रहता है। इस संतुलन में आशा बन्धनरत सम्पूर्ण जीवन जो जीवनी क्रम में अपने को प्रमाणित करने में प्रवृत्त रहते हैं उनमें नियंत्रण सहित ही शरीर को जीवन्त रखने, आशानुरूप जीने की प्रतिष्ठा बनती है। यहाँ शरीर को जीवन्त बनाये रखने में ‘मध्यस्थ क्रिया’ व्यक्त होता है। जीवसंसार में यही मौलिकता है कि वंशानुषंगीयता से भिन्न और कोई कार्य एवं आचरण उस-उस शरीर को संचालित करते तक जीवन नहीं करता है अर्थात वंशानुरूप कार्य करता है। जबकि मानव संस्कारनुषंगी इकाई होने के कारण वंश विधि शरीर रचना तक ही सार्थक होना स्पष्टतया देखा गया है। अतएव मानव के संबंध में सम्पूर्ण अध्ययन जीवन सहज और संस्कार सहज क्रम में ही होता है। तभी मानवत्व सहित व्यवस्था समग्र व्यवस्था में भागीदारी होता है।

मध्यस्थ क्रिया उसकी महिमा और उसकी अक्षुण्णता को जानना-मानना-पहचानना, तदनुसार निर्वाह करना मानव सहज मौलिकता है। मध्यस्थ क्रिया अपने आप में