अध्यात्मवाद
by A Nagraj
स्वभावगति का नित्य स्त्रोत होना सभी अवस्थाओं में पहचाना जाता है। इसी क्रम में ज्ञानावस्था में कार्यरत जीवन में भी स्वभावगति और आवेशित गति को पहचानना सहज है। इस सहजता को इस प्रकार पहचाना गया है कि मानवत्व सहित अभिव्यक्त और प्रकाशित होना मानव सहज स्वभाव गति है। अमानवीयता वादी प्रकाशन और कार्यकलाप आवेशित गति के रूप में दिखाई पड़ती है। अमानवीयतावादी प्रवृत्तियाँ संघर्ष, युद्ध, शोषण, द्रोह, विद्रोहरत रहना पाया जाता है जबकि मानवीयतापूर्ण आचरण, व्यवहार और व्यवस्था गतियाँ स्वभावगति समाधान के रूप में देखने को मिलता है।
जागृतिक्रम में आशा, विचार, इच्छा बन्धन रहते हुए मानव प्रिय, हित, लाभवादी कार्यकलापों में व्यस्त रहते हुए भी जीवन सहज नियंत्रण, शरीर को जीवंत और नियंत्रित बनाये रखने में ‘मध्यस्थ क्रिया’ कार्यरत रहता है। इसी के साथ-साथ अव्यवस्था की पीड़ा, व्यवस्था की भासपूर्वक आवश्यकता, और पाने की आशा ‘मध्यस्थ क्रिया’ के रूप में ही निर्गमित होती है। अतएव जागृति की संभावना की ओर ध्यानाकर्षण होना ‘मध्यस्थ क्रिया’ की ही महिमा है।
जागृति की आवश्यकता स्वयं ‘मध्यस्थ क्रिया’ का ही वैभव होना देखा गया है। आवश्यकता की आपूर्ति जीवन सहज अक्षय बल, अक्षय शक्ति सम्पन्नता सहित नियंत्रण रूपी ‘मध्यस्थ क्रिया’ में समाहित रहता है। इसका प्रमाणीकरण विधि और इसके उपयोग विधि और तृप्ति विधियां जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहज अध्ययन क्रम में लोकव्यापीकरण होना देखा गया।
जागृति क्रम तक ‘मध्यस्थ क्रिया’ की महिमा ही है जो जागृति के लिये आवश्यकता, अनिवार्यता को स्वयं-स्फूर्त विधि से स्पष्ट करता आया है। सबसे समीचीन और सुलभ तथ्य यही है पदार्थावस्था से ज्ञानावस्था तक ज्ञानावस्था में जागृतिपूर्णता तक मानव को अध्ययन करने का अवसर और स्वयं का मूल्यांकन करने का अर्हता ये दोनों ऐश्वर्य एक साथ सर्वमानव के लिये सुलभ हो गया है। जागृति में, से, के लिये अध्ययन और उसकी आवश्यकता एवं अनिवार्यता मानव सम्मुख हो चुकी है।