अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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परंपरा के रूप में मानव बहुमुखी प्रवृत्तियाँ, कल्पनाशीलता और कर्मस्वतंत्रता जैसी मौलिक स्वत्व के आधार पर फैलता ही गया। ऐसा विविध आयामों, दिशा, कोणों, परिप्रेक्ष्यों के क्रम में फैला हुआ परंपरा में, से, के लिये शिक्षा, संस्कार, संविधान, व्यवस्था दूसरे भाषा में समुदाय के संस्कृति, सभ्यता, विधि-व्यवस्था के रूपों में परंपराओं का होना देखा गया है।

मानव शरीर का संचालन भी जीवन ही सम्पन्न करने का तथ्य सुस्पष्ट है। मानव शरीर संचालन संस्कारानुषंगीय होने के अर्थ में ही बहुमुखी परंपराएँ देखने को मिला, यह केवल मानव परंपरा में ही मिला। इसमें यह भी देखने को मिला मानव ही अपने विभूतियों का सदुपयोग और दुरूपयोग कर सकता है। क्योंकि सम्पूर्ण मानव में शुभाकांक्षा उमड़ती ही रहती है। इन उमड़ती हुई शुभाकांक्षा ध्रुवीकृत होने के ओर ही सुदूर विगत से इस दशक तक किये गये प्रयास और अभिव्यक्तियों से इसी तथ्य की पुष्टि होती है। सर्वशुभ और उसकी प्रतिष्ठा सर्वसुलभ रूप में तभी संभव होना देखा गया है कि हर बच्चे-बड़े जागृति को प्रमाणित कर दे। ऐसी लोकव्यापीकृत जागृति, लोक व्यापीकृत सर्वशुभ प्रमाण योग्य जागृति, जागृत परंपरा में, से, के लिये होना भी सुस्पष्ट हो चुकी है। जागृत जीवन में मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ बल के स्वरूप को समझने की विधि सहित उसका कार्य, कार्य-स्वरूप और प्रयोजनों को ज्ञात कर लेना आवश्यक है। यही शिक्षा-संस्कार का प्रयोजन है। इससे लोकव्यापीकरण कार्यक्रम में सहज गति सुलभ होगा ही।

मध्यस्थ क्रिया को परमाणु के मध्यांश के रूप में पहचाना गया है। चैतन्य परमाणु में भी मध्यांश का होना स्वाभाविक है क्योंकि चैतन्य इकाई मूलत: एक गठनपूर्ण परमाणु ही है। इस परमाणु में विशेषता ‘गठनपूर्णता’ है। गठनपूर्णता की मौलिकता है - अणुबन्धन और भारबन्धन मुक्ति और आशा, विचार, इच्छा बन्धन का प्रकाशन और इसी क्रम में आशा, विचार, इच्छा बंधन मुक्ति ही जागृति का स्वरूप है। फलस्वरूप जागृत जीवन का निश्चित कार्यकलाप मानवीयता और मानवीयता पूर्ण परंपरा है। ऐसी चैतन्य इकाई में मध्यस्थ क्रिया का स्वरूप और कार्य भी यथा स्थिति को बनाए रखने और जीवनी क्रम, जागृति क्रम और जागृति को अक्षुण्ण