अध्यात्मवाद
by A Nagraj
जीवन प्रवृत्ति ही जीने की आशा का स्वरूप होना स्पष्ट हुआ। वंशानुषंगीय शरीर पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों के रूप में रचित रहता ही है। उसी कार्य के प्रति अनुमोदन ही जीवनी क्रम और जीने की आशा सहज अपेक्षा और प्रतिबद्धता है। इसी विधि से जीवन और शरीर सहित जीव संसार के शरीरों का संयोग, सहअस्तित्व कार्यकलाप स्पष्टतया दिखाई पड़ता है। इस विधि से हम यह अध्ययन कर पाते हैं कि जीव शरीरों में वंशानुषंगीय क्रियाकलापों को प्रमाणित करने में, कार्यरत होने में कोई न कोई उसके योग्य जीवन अपने में स्वीकार लेता है। ऐसे स्वीकृति को प्रमाणित भी कर देता है। अतएव जीवसंसार में जो वंशानुषंगीय विधि है उसके अनुसार जागृति की संभावना ही नहीं है न आवश्यकता है न ही प्रवृत्ति है फलत: प्रयासरत होने का प्रश्न नहीं है उत्तर नहीं है।
ज्ञानावस्था की इकाई सहअस्तित्व में केवल मानव है। ज्ञानावस्था का तात्पर्य ही है जीवन्त मानव शरीर रचना पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों सीमागत कार्यकलापों के अतिरिक्त तथ्य को उद्घाटित करना। मानव शरीर रचना गर्भाशय विधि से होना देखा गया है। गर्भाशय में भ्रूण रचना डिम्ब और शुक्र कीट संयोग विधि से होना भी ज्ञात हो चुका है। डिम्ब और शुक्रकीट मूलत: प्राण-कोषाओं में निहित प्राणसूत्रों का ही रचना है। इस रचना में अर्थात् उभय कीट रचना संयुक्त रूप में ही शरीर रचना सूत्र रूप में स्थापित रहती है। इसी कारण वश उभयलिंगी (स्त्री व पुरूष शरीर) क्रम बना ही रहता है। इसका गवाही उभयलिंगी शरीर रचना होती है। इस प्रकार वंशानुषंगीय रचना मूलत: उभय कीट में समायी हुई शरीर रचना सूत्र पर आधारित रहना स्पष्ट है। इसी क्रम में मानव शरीर का भी रचना सम्पन्न हुआ रहता है। मानव शरीर रचना में अंतर यही है समृद्धिपूर्ण मेधस रचना रहता है इसी के आधार पर जीवन, जीवनी क्रम से आगे जागृति क्रम में आरूढ़ होता है। आदिकालीन मानव से अभी तक किये गये कृत्यों और परम्पराओं को देखने से यह साक्षित होता है। जागृति क्रम में आरूढ़ होने का साक्ष्य, शरीर को जीवन समझते हुए भी शरीर कृत्यों से तृप्त न होना, अव्यवस्था की समझ से पीड़ा होना, अन्याय और समस्या की पीड़ा से पीड़ित होना। एक भाग इन पीड़ाओं से विस्मृत होने के लिये प्रलोभनों-आस्थाओं को अपनाता हुआ देखा गया।