अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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जागृतिपूर्वक ही न्याय एवं समाधान पूर्ण आचरण में हर व्यक्ति पारंगत होना सहज प्रमाण है। मानवीयता मानव का वांछित वस्तु है। इसी आधार पर जीवन जागृति के सभी आयामों को, विधियों को, कार्य प्रणाली को पहले स्पष्ट किया जा चुका है जिसमें जीवन की रचना, कार्यरूप, उद्देश्य अथवा अंतिम उद्देश्य, अक्षय बल, अक्षय शक्ति, जीवन में पाँचों अवयव समुच्चय की अविभाज्यता, अस्तित्व में जीवन (चैतन्य प्रकृति) की अविभाज्यता, सहअस्तित्व में जड़-चैतन्य प्रकृति का सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में नित्य वर्तमान होना स्पष्ट किया गया है। यह भी स्पष्ट किया गया है अस्तित्व न तो घटता है न बढ़ता है।

मानव द्वारा ही भ्रमवश किये गये कार्यकलापों, कृत्यों के परिणाम स्वरूप धरती मानव निवास के लिये अयोग्य होने का क्रम आरंभ है। जागृत होने की आवश्यकता है और जीवन सहज रूप में हर व्यक्ति जागृति को स्वीकारता है। इन दोनों आवश्यकतावश जागृति और जागृति पूर्णता की ओर गतित होना अनिवार्य हुआ है। जागृत स्थिति में जीवन में कार्यरत मध्यस्थ क्रिया गठनपूर्णता सहज ऐश्वर्य को संतुलित रखते हुए न्यायपूर्ण विधि से व्यक्त होने के रूप में संतुलित, नियंत्रित और सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज, सर्वतोमुखी समाधान में, से, के लिये भास, आभास, प्रतीति, अनुभूति के रूप में कार्यरत रहता है। इसी बिन्दु में सहअस्तित्व सहज विधि से वर्तमान में विश्वास होना मध्यस्थ क्रिया का वैभव होता है। संघर्ष का तिरोभाव, सहअस्तित्व में विश्वास होना मध्यस्थ क्रिया का प्रभाव है। ये सब प्रतीतियाँ अनुभव बोध रूप में होना देखा गया है। यह बोध जागृत परंपरापूर्वक सर्वसुलभ होता है। मध्यस्थ क्रिया सहज न्याय और धर्म (सर्वतोमुखी समाधान) व्यवहार में फलित होना स्वाभाविक होता है और प्रामाणिकता के लिये अपरिहार्यता निर्मित हो जाती है। ‘क्रियापूर्णता’ की स्थिति में ‘मध्यस्थ क्रिया’ की महिमा है। तात्विक रूप में इस को इस प्रकार से देखा गया है न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य दृष्टियाँ भ्रम बन्धन से मुक्ति; श्रम का विश्राम; न्याय, धर्म, सत्यानुभूति प्रमाण बोध होते ही स्वाभाविक रूप में कार्य व्यवहार में प्रमाणित हो जाता है। इसी के साथ-साथ अनुभव का प्रयोजन अपने आप बलवती होता है। जीवन अपने में से व्यवस्था में भागीदारी सहज विधि को स्वीकार लेता है। यह सर्वदा के लिये