अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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वस्तु व द्रव्यों से संरचित रहते हैं। यह रचना-विरचना का स्रोत यह धरती ही है। स्वयं धरती भी एक रचना है। इस धरती पर जब तक विकास दिखती रहती है तब तक इसके स्वस्थता में कोई शंका नहीं है। विकास और उसकी निरंतरता की व्यवस्था अस्तित्व सहज रूप में विद्यमान है। पदार्थावस्था और प्राणावस्था की सम्पूर्ण रचना-विरचनाएँ परिणाम और बीज के आधार पर परंपरा के रूप में तत्पर रहना देखा जाता है। इसी आधार पर हर मानव अस्तित्व में अनुभूत होने की सूत्र जुड़ी हुई हैं।

मानव शरीर द्वारा जीवन सहज पूर्ण जागृति प्रमाणित होने की व्यवस्था, आवश्यकता अस्तित्व सहज रूप में ही निहित है क्योंकि अस्तित्व स्थिर है, विकास एवम् जागृति निश्चित है। जागृति को प्रमाणित करना जीवनापेक्षा है। जागृति सुख, शांति, संतोष, आनन्द है। इसे भले प्रकार से देखा गया है। इसकी जीवन सहज निरंतरता होती है क्योंकि जीवन नित्य है। जीवन सहज जागृति अक्षुण्ण होना भावी है। ऐसी जागृति और जागृति की अक्षुण्णता की प्यास हर व्यक्ति में निहित है। अतएव जीवन जागृति प्रणाली को परंपरा में अपनाना एक अनिवार्यता हैं।

जीवन अपने में अनुभव, बोध, चिन्तन (साक्षात्कार) सहित ही किया गया चित्रण, विश्लेषण, तुलन, चयन और आस्वादन स्वाभाविक रूप में न्यायिक समाधानपूर्ण और प्रामाणिकता सहज अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन सहज कार्य-व्यवहार होना देखा गया है। यही “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” की आवश्यकता, उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनीयता को पहचानने और व्यक्त होने का आधार हुआ।

मूलत: इस अनुसंधान के मूल में रूढ़ियों के प्रति अविश्वास, कट्टरपंथ के प्रति अविश्वास रहा है। सार रूप में, वेदान्त रूप में “मोक्ष और बंधन” पर जो कुछ भी वाङ्गमय उपलब्ध है इस पर हुई शंका। परिणामत: निदिध्यासन, समाधि, मनोनिरोध, दृष्टाविधि के लिये जो कुछ भी उपदेश है उसी के आधार पर प्रयत्न और अभ्यास किया गया। निर्विचार स्थिति को प्राप्त करने के बाद परंपरा जिसको समाधि, निदिध्यासन, पूर्णबोध निर्वाण जो कुछ भी नाम लिया है, इसी स्थली में मूल शंका का उत्तर नहीं मिल पाया। परिणामत: इसके विकल्प के लिये तत्पर हुए। पूर्वावर्ती इशारों के अनुसार ‘संयम’ का एक ध्वनि थी। उस ध्वनि को संयम में