अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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आशावादी और इसे प्रमाणित करने वाला है।” इसीलिये व्यवहार में सामाजिक, फलतः सर्वतोमुखी समाधान, व्यवसाय में स्वावलंबन जिसका प्रमाण परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन से समृद्धि होना पाया जाता है। इस प्रकार हर परिवार समाधान, समृद्धिपूर्वक प्रमाणित होना मानवत्व का प्रमाण है। इसी विधि से हर परिवार का जीना ही इसका लोकव्यापीकरण है। यही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था है।

‘मानवत्व’ सर्वमानव में, सर्वदेश में, सर्वकाल में वांछित प्रज्ञा, विचार, प्रबोधन, संबोधन, आचरण, व्यवहार, व्यवस्था में भागीदारी है।

प्रज्ञा का सार्थक स्वरूप ‘जीवन ज्ञान’, ‘अस्तित्व दर्शन ज्ञान’ का संयुक्त रूप है। जीवन सहज ज्ञान सहअस्तित्व सहज अस्तित्व में ही होना पाया गया है क्योंकि व्यापक सत्ता में संपृक्त अनंत प्रकृति सहअस्तित्व के रूप में नित्य वर्तमान है। सत्ता स्वयं व्यापक, पारदर्शी, पारगामी, स्थिति पूर्ण होने के कारण इनमें गति दबाव न होते हुए नित्य वैभव होना दिखाई पड़ता है। हर दो इकाई के मध्य में, परस्परता में, सभी ओर में सत्ता दिखाई पड़ता है। वस्तु विहीन हर स्थली सत्तामय स्वरूप ही है। इसी नित्य साक्ष्य के आधार पर हर वस्तु सत्ता में ही होना सुस्पष्ट है। सत्ता में होने के आधार पर हर वस्तु सत्ता में डूबा, भीगा, घिरा दिखाई पड़ता है। ऐसे दिखने वाली वस्तु में स्वयं-स्फूर्त विधि से क्रियाशीलता वर्तमान है यह क्रियाशीलता गति, दबाव, प्रभाव के रूप में देखने को मिलता है। दूसरे विधि से सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही स्थिति-गति, परस्परता में दबाव, तरंगपूर्वक आदान-प्रदान सहज विधि से पूरकता, उदात्तीकरण, रचना-विरचना के रूप में होना देखने को मिलता है। और परमाणु में विकास, परमाणु में गठनपूर्णता, चैतन्य पद में संक्रमण जीवन पद प्रतिष्ठा का होना देखा गया है। इस प्रकार जीवन पद और जीवन व रासायनिक-भौतिक पदों के लिये परमाणु ही मूल तत्व होना समझ में आता है।

सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति में व्यवस्था के मूल तत्व के रूप में परमाणु को देखा जाता है। जबकि अस्तित्व ही सम्पूर्ण अभिव्यक्ति या प्रकटन है। यहाँ मूलतः यह तथ्य ध्यान में रहना आवश्यक है कि सत्ता में संपृक्त प्रकृति अविभाज्य है। यह अविभाज्यता निरंतर है। इसीलिये सत्ता में संपृक्त प्रकृति नित्य वर्तमान ही है।