अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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अस्तित्व स्वयं भाग-विभाग नहीं होता है इसीलिये अस्तित्व अखण्ड अक्षत होना समझ में आता है। प्रमुख अनुभव यही है कि सत्ता में संपृक्त प्रकृति अनन्त रूप में दिखाई पड़ती है ये सब भाग-विभाग के रूप में ही सत्ता में दिखाई पड़ती हैं। इसे सटीक इस प्रकार देखा गया है व्यवस्था का भाग-विभाग होता नहीं। अस्तित्व ही व्यवस्था का स्वरूप है।

आदिकाल से अभी तक के अथक प्रयास से भाग-विभाग को लेकर जितने भी अनुसंधान, प्रयोग और अनुमान किये हैं उन सब का समीक्षा इतना ही है कि किसी एक वस्तु को विखण्डन पूर्वक तिरोभाव किया नहीं जा सकता। यह गणित विधि से भी सुस्पष्ट है। गणितीय विधि से ही विखण्डन अनेक होने की क्रिया है।

मूलभाव बनाम अस्तित्व नित्य वर्तमान ही है। अस्तित्व स्वयं में व्यवस्था सहज स्वरूप में होने के कारण और व्यवस्था ही नित्य भाव होना स्पष्ट है, शाश्वत् है। यही प्रधान-मुद्दा है। इसे हर मानव समझना चाहता है और हम समझा सकते हैं। अस्तित्व ही वर्तमान सहज होने के कारण जीवन सहज रूप में हर मानव अस्तित्व को स्वीकारा ही रहता है बनाम व्यवस्था को स्वीकारा ही रहता है। इस संक्षेप विधि से ही अस्तित्व सहज स्वीकृति सर्वेक्षित होता है और सत्यापनवादी सर्वेक्षण विधि से हर मानव व्यवस्था को वरना पाया गया है। साथ ही इस दशक में शरीर यात्रा करता हुआ मानव को यह पूछने पर कि आप क्या व्यवस्था को जानते है ? उत्तर नकारात्मक मिलता है। अन्ततोगत्वा अनिश्चियता और अस्थिरता का जनमानस में समावेश होते ही आया है। अस्थिरता, अनिश्चिततावश ही मानव आतुर-कातुर होना, सुविधा संग्रह के लिये और पीड़ित होना भी देखा गया है।

अनुभव जीवन में होता है या शरीर में होता है यही मुख्य बिन्दु है - यह तथ्य विदित हो चुका है - जीवन ही शरीर को जीवन्त बनाए रखता है। जीवन्त शरीर ही जीवन से संचालित होता है। इसी तथ्य-पुष्टि के क्रम में शरीर अपने-आप में कैसा है ? कैसे रचित और विरचित होता है इसे मानव आदिकाल से देखते आ रहा है। मुख्य मुद्दा - परमाणु में विकास, पूरकता, गठनपूर्णता, संक्रमण इन तथ्यों को भले प्रकार से समझ चुके हैं। अतएव इसे समझना हर व्यक्ति के लिये आवश्यक है। चैतन्य प्रकृति, जड़ प्रकृति यह प्रकृति समुच्चय है। जड़ प्रकृति रासायनिक-भौतिक