अध्यात्मवाद
by A Nagraj
तत्परता को बनाया गया। आकाश (शून्य) में संयम किया। निर्विचार स्थिति में अस्तित्व स्वीकार/बोध सहित सभी ओर वस्तु सब आकाश में समायी हुई वस्तु दिखती रही इसलिये आकाश में संयम करने की तत्परता बनी। कुछ समय के उपरान्त ही अस्तित्व सहअस्तित्व रूप में यथावत् देखने को मिला। अस्तित्व में ही ‘जीवन’ को देखा गया। अस्तित्व में अनुभूत होकर जागृत हुए। ऐसे अनुभव के पश्चात् अस्तित्व सहज विधि से ही हर व्यक्ति अनुभव योग्य होना देखा गया। अनुभव करने वाले वस्तु को ‘जीवन’ रूप में देखा गया। इसी आधार पर “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” को प्रस्तुत करने में सत्य सहज प्रवृत्ति उद्गमित हुई। यह मानव सम्मुख प्रस्तुत है।
इसमें और एक भाग पर मेधावियों का जिज्ञासा हो सकता है आप पूर्ववर्ती पद्धतियों के आधार पर अभ्यास-विधि से पार पा गये, सबके लिये उन सभी विधियों को ओझिल क्यों कर रहे है ? उन अभ्यास विधाओं के प्रति प्रस्ताव क्यों प्रस्तुत नहीं कर रहे है ? उत्तर में अनुभव विधि से यही व्यवहार गम्य है। जागृति विधि से जागृत परंपरा, जागृत परंपरा विधि से मानवीय शिक्षा, मानवीय व्यवस्था में प्रमाणित होना इसके लिये आवश्यकीय व्यवहार कार्यों में पारंगत होना ही जागृत परंपरा होने का वैभव को देखा गया, समझा गया, प्रमाण के रूप में जीकर देखा गया। यह सटीक सिद्ध हुआ या इसकी सटीकता सिद्ध हुई अर्थात् अनुभव परंपरा की सटीकता सिद्ध हुई। आवश्यकता सुदूर विगत से ही होना रहा। अतएव जिस अभ्यास साधना परंपरा में चलकर समाधि स्थली में पहुँचने के उपरान्त भी स्वान्त: सुख में पहुँचने के उपरान्त भी सर्वशुभता का मार्ग प्रशस्त नहीं हुआ, समाधि के लिये अथवा निर्विकार स्थिति के लिये बोधपूर्ण होने के लिये, सत्य साक्षात्कार होने के लिये, आत्मसाक्षात्कार होने के लिये, देवसाक्षात्कार होने के लिये, संयोग से जागृत होने के लिये (जागृत व्यक्ति को छूने से) भी परंपरा अपने-अपने ढंग से चल रहे हैं उन सभी में प्रकारान्तर से समाधि का ही लक्ष्य बताया गया है। उन सभी परंपरा के प्रति मेरा कृतज्ञता को अर्पित करते हुए, (क्योंकि उससे मुझे सहायता मिला है) सर्वशुभ मानव परंपरा में स्थापित होने का ज्ञान, दर्शन, आचरण, व्यवस्था, शिक्षा प्रवाह को स्थापित करना आवश्यक समझा गया है। इसका कारण मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद) के अंगभूत “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” को