अध्यात्मवाद
by A Nagraj
इस तरह राज्याधिकार, धर्माधिकार सफल व्यक्ति का स्वरूप इस बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक में देखने को मिल रहा है। यही भ्रमात्मक धर्म, भ्रमात्मक राज्य का गवाही है। जबकि ‘मानव धर्म’ अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के स्वरूप में ही सार्थक और सर्वसुलभ होना पाया जाता है। इस विधि से सम्पूर्ण मानव के सम्मुख सर्वमानव सुखी होने का सूत्र “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” प्रस्तुत है।
पहला मुद्दा - शक्ति केन्द्रित शासन चाहिये या समाधान केन्द्रित व्यवस्था चाहिये ?
दूसरा मुद्दा - संग्रह सुविधा चाहिये या न्याय, समाधान और समृद्धि चाहिये ?
तीसरा मुद्दा - इसके लिये लाभोन्मादी अर्थशास्त्र, भोगोन्मादी समाज शास्त्र, कामोन्मादी मनोविज्ञान शिक्षा की वस्तु के रूप में चाहिये या आवर्तनशील अर्थशास्त्र, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान शिक्षा की वस्तु के रूप में चाहिये ?
चौथा मुद्दा - विखण्डनवादी (प्राकृतिक असंतुलनवादी) विज्ञान चाहिये या सहअस्तित्ववादी (प्राकृतिक संतुलनवादी) विज्ञान चाहिये ?
इन्हीं सकारात्मक-नकारात्मक अर्थात् अभी तक किया गया शिक्षा स्वरूप को नकारता हुआ और सकारात्मक पक्ष को प्रस्तावित किया हुआ का समर्थन में समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद (सहअस्तित्ववाद) चाहिये या द्वन्दात्मक भौतिकवाद, संघर्षात्मक जनवाद, रहस्यात्मक अध्यात्मवाद (आदर्शवाद) चाहिए।
रहस्यमूलक ईश्वर केन्द्रित चिन्तन और अस्थिरता अनिश्चयता मूलक वस्तु केन्द्रित चिन्तन चाहिये या अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन चाहिये ?
यही मानव कुल को निश्चय करने का अवसर समीचीन हुआ है। इसे नकारने-सकारने के पक्ष में कही गई विश्व दृष्टिकोण, विचार शैली, शास्त्र प्रणालियों में से प्रभावित का परिचय अधिकांश लोगों के पास जाँच पड़ताल सहित धारक-वाहकता के रूप में प्रस्तुत है। और प्रस्तावित दर्शन बनाम चिन्तन, विचार शैली का नाम, प्रस्तावित शास्त्रों का नाम मानव के सम्मुख प्रस्तुत हुआ। इस स्थली में, यहाँ इस