अध्यात्मवाद
by A Nagraj
में ही गण्य होता है। वह क्रम में जागृति पूर्ण मानव ही दिव्यमानव, जागृत मानव ही देवमानव और मानव, अजागृत पशु मानव व राक्षस मानव के अर्थ में अमानव गण्य होना देखा गया है। जीवन में ही दृष्टि, स्वभाव और प्रवृत्तियाँ होना अध्ययन गम्य है और स्वयं में अनुभव किया गया है, हर व्यक्ति अनुभव कर सकता है। अतएव मानव ही सत्यापित करने के लिये मानव से ही सत्यापित होने के लिये मानव में ही सम्पूर्ण सत्यापन उद्गमित होना देखा गया है। यही सत्यापन अभिव्यक्ति संप्रेषणा के अर्थ में गण्य होता है। अस्तित्व सहज पदार्थावस्था, प्राणावस्था और जीवावस्थाएँ अपने-अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था के अर्थ में परंपरा के रूप में प्रकाशमान है ही।
अस्तित्व सहज सभी अवस्थाओं का दृष्टा, मानवीयता पूर्ण क्रियाकलापों का कर्ता, मानवापेक्षा सहज समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का भोक्ता केवल मानव ही है। अस्तित्व में अनुभव सहज अभिव्यक्ति ही यह सत्यापन और सत्यापन विधि होना पाया गया है। यही मानव परंपरा का मौलिक वैभव है। यह सर्वसुलभ होने के लिये परंपरा ही जागृत होना अति अनिवार्य है। इस बीसवीं शताब्दी की दसवें दशक तक इस धरती के मानव विविध प्रकार से अथवा उक्त दोनों प्रकार से यथा भौतिकवादी और आदर्शवादी विधि से मानव को भुलावा देकर ही सारे धरती का शक्ल बिगाड़ दिया। और दूसरे विधि से मरणोपरांत स्वर्ग और मोक्ष के आश्वासन में लटकाया। जबकि मानव शरीर यात्रा के अवधि में ही जागृति अनुभवमूलक प्रमाण, प्रामाणिकता मानव के लिये एक मात्र शांति पूर्ण समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सहज आनन्दित होना देखा गया है। यही जागृति सहज प्रमाण है। आडम्बर मूलत: भ्रमवश ही घटित होना देखा गया है। सम्पूर्ण भ्रम का पोषण राजगद्दी एवं धर्मगद्दी करता है। इसका स्रोत शिक्षा-गद्दी है। इस प्रकार शिक्षा गद्दी को जागृत होना आवश्यक है। इसके फलन में मानव धर्म ही अखण्ड समाज के अर्थ में सर्वमानव में, से, के लिये आश्वस्त और विश्वस्त होना नित्य समीचीन है। इससे सम्पूर्ण समुदायों जो अपने को समाज कहते है उनका विलय होगा ही। दूसरा परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था सहज विधि से अनेक राज्यों की परिकल्पना तिरोभावित होगी। इस प्रकार धरती की अखण्डता अपने में सम्पूर्णता के साथ स्वस्थ होने का शुभ दिशा प्रशस्त होगा। इसी के साथ मानव कुल में