अध्यात्मवाद
by A Nagraj
लिये ही अधिकार मानसिकता बना रहता है। अधिकार मानसिकता में, अधिकार को पाया हुआ मानसिकता में, और अधिकार प्रवर्तन की मानसिकता में जो भ्रम अपने श्रेष्ठता, अन्य की नेष्ठता को बनाये रखा रहता है वही कार्यरूप में अन्य को क्षति ग्रस्त होना ही प्रायोजित हुआ रहता है। जैसा - ‘दासवाद’ को समर्पित शासनाधिकार में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ, शासन में जो नहीं रहते है उनसे अपने आप को श्रेष्ठ मानते हुए सभी प्रकार से निर्णय लिये रहना अर्थात् संवाद के पहले से ही निर्णय लिये रहना देखा गया है। इसका साक्ष्य अभी तक शासन मानसिकता लोक मानसिकता से मिलन बिन्दु स्थापित नहीं हुई है। जबकि धर्मशासन विधि से आचरण पद्धति के रूप में एक आचार संहिता प्रस्तुत किये रहते हैं। ईश्वरीय नियम के रूप में संध्या-उपासना-प्रार्थना अभ्यास भाषा के रूप में बताया करते हैं। हर धर्म गद्दी में बैठा हुआ व्यक्ति अपने को सर्वश्रेष्ठ बाकी सब अज्ञानी-पापी-स्वार्थी के रूप में गणना करते हुए भाषा, लहजा मुद्रा, भंगिमाओं को प्रस्तुत करते हैं जबकि यह सर्वथा भ्रम का ही द्योतक है। क्योंकि भ्रमित धर्म, भ्रमित राज्य के वशीभूत जन-मानस भ्रमित रहना स्वाभाविक है इसलिए धर्म, राज्य और जनमानसिकता का तालमेल में संगीत, समाधान प्रतिपादित नहीं हुआ। ये तीनों दिशाविहीन, अंतर्विहीन, अर्थविहीन रूप से ही अंत होते है। नामत: इसे समस्या कहा जाता है। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक तक धर्म गद्दी, राज्य गद्दी की अस्मिता स्पष्ट है। प्रस्ताव के रूप में अर्थात् समाधान केन्द्रित सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज के अर्थ में “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” बनाम अनुभवात्मक आदर्शवाद को प्रस्तुत किया है।
भ्रमात्मक धर्म और राज्य परंपरा में परिकल्पित अधिकारों का प्रवर्तन संग्रह, सुविधा और भोग के अर्थ में ही अंत होना देखा गया। आज की स्थिति में शक्ति केन्द्रित शासन प्रयोग में अधिकार पाया हुआ व्यक्ति की सफलता का स्वरूप इस प्रकार दिखाई पड़ता है कि देशवासियों को कड़ी मेहनत, ईमानदारी का नारा और पाठ सुनाते रहे और अपने संग्रह कोष को स्वदेश के अतिरिक्त विदेश में मजबूत बनाते रहे। इसी प्रकार सफल धर्म में अधिकार प्राप्त व्यक्ति (सिद्धि प्राप्त व्यक्ति) का स्वरूप देखने पर यही पता लगता है कि संसार में त्याग और वैराग्य का पाठ पढ़ावे और अपने कोष व्यवस्था को स्वदेश में अधिकतम मजबूत बनाये रखे।