अध्यात्मवाद
by A Nagraj
मानव ही जीवन मूलक व्यवस्था है
ज्ञानावस्था में पाये जाने वाले मानव अपने में मौलिक अभिव्यक्ति होना सर्वस्वीकृत है। इस मौलिकता के मूल में शरीर रचना के आधार पर पहचानने के लिए कोशिश किया वह नस्ल के ढांचे-खाँचे में पहचानने में आता रहा। इसी के साथ अर्थात् शरीर रचना के साथ रंग में भी विभिन्नता होना देखा गया। इन्हीं मुद्दे पर सर्वाधिक समय मानव अपने को मनमानी सोच में लगाया। इसी क्रम में मानव, मानव के साथ जैसा भी पाशविकताएँ बरती गई हैं वह सर्वविदित है ही। यह आरंभिक काल में ही अर्थात् इस धरती पर मानव के अवतरण होने के थोड़ ही समय के उपरांत घटित घटनाओं के आधार पर समझा जाता है। इसके पश्चात भी बहु कारणों से समुदायों को अलग-अलग श्रेष्ठ-नेष्ठ बताने के लिए प्रयास किया गया, वाङ्गमय बनाये गये और उनके आधार पर आचार संहिता बताई गई। अभी तक यही निष्कर्ष निकला है कि सार्वभौम रूप में मानव को पहचानने का विधि स्थापित नहीं हुआ। जबकि सुदूर विगत से ही यह प्रयास जारी रहा है।
जैसा-जैसा मानव अधिकाधिक आयामों में अपने को सार्थक बनाने जाता रहा उनके सम्मुख उतना ही अधिक जटिलताएँ आता रहा। इन सभी कुण्ठा, प्रताड़नाओं को झेलता हुआ मानव लुके छिपे विधियों से अपने में अच्छाइयों को पालने का भी बहुत सारा प्रयत्न करता रहा। ये सब करने के उपरांत भी अच्छाइयों का तृप्ति बिन्दु कहीं मिल नहीं पाया। इन्हीं सब विरोधाभासी घटनाक्रम में मानव अपने को पहचानने की अभीप्सा को बरकरार रखा। यही मुख्य रूप में परंपरा का देन है। इसी क्रम में पहले कहे गये चारों विभूतियों के गुजर रहे हैं। इन्हीं में उतरता-चढ़ता रहा विभिन्न समुदायगत मानव दृष्टव्य है।
प्रधान उलझन यही है मानव शरीर मूलक व्यवस्था है या जीवन मूलक व्यवस्था है? यदि जीवन मूलक व्यवस्था है, ऐसी स्थिति में जीवन क्या है? कैसा है? क्यों है? इन्हीं प्रश्नों से बोझिल होता है। इसका उत्तर भौतिकवादी, अधिभौतिकवादी व अध्यात्मवादी विधि से व अधिदैवीवादी विधियों से अध्ययन प्रक्रिया सहित कोई तथ्य कल्पना प्रस्तुत नहीं कर पाया। विचार तो काफी दूर रहा। इसका उत्तर “अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन” से प्राप्त किया जाना सहज सुलभ है। यह