अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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लिये आवश्यकीय मानसिकता सहज ही लोकव्यापीकरण हो चुकी है। इनका उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशीलता करतलगत नहीं हो पायी है। इसीलिये इनके अपव्यय को अर्थात् अमानवीयतावश अपव्यय की संभावना दिखाई देती है, इसका शमन, उपाय, समाधान मानवीयता पूर्ण पद्धति, प्रणाली, नीति सम्मत सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज को जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने की आवश्यकता है। यही अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन ज्ञान सहज सहअस्तित्व विधि पूर्ण परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को साकार करना ही है।

व्यवस्था साकार होने के उपरांत शासन की निरर्थकता समझ में आती है। इसके फलस्वरूप छल, बल सहित किये जाने वाले द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्ध निरर्थक हो जाता है। साथ ही मानवीयता पूर्ण विधि क्रम में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में, से, के लिये कार्यक्रम, प्रवृत्ति, मानसिकता, अवधारणा और अनुभव सर्वसुलभ होना व्यवस्था गति में समाहित रहता है।

मानवीयतापूर्ण व्यवस्था गति बहुआयामी अभिव्यक्ति और उसका मूल्यांकन क्रम में तृप्ति, संतुष्टि और समीक्षा करने योग्य प्रणाली है। मानव अपने में, से किये गये सम्पूर्ण अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशनों को व्यवहार में प्रमाणित करने के उपरान्त उसका मूल्यांकन करना ही सफलता की स्वीकृति के रूप में होता है। जागृत परंपरा में किये गये सम्पूर्ण कार्य-व्यवहारों का मूल्यांकन मानवीयतापूर्ण व्यवस्था के अंगभूत होने के कारण मूल्यांकन सदा समाधान सहज होना पाया गया है। मानव परम्परा में व्यवस्था सहज विधि से जीना ही जीने की कला को प्रमाणित कर पाता है। इस तथ्य को अच्छी तरह से देखा गया है। इसके साथ यह भी समीक्षित हुआ है कि व्यवस्था के पहले हम किसी भी प्रकार से जीने के जैसा नहीं दिखते हैं ये सब जीने के लिये प्रयत्नशील है।

जीना कम से कम तीन आयामों में स्वयं-स्फूर्त विधि से सम्पन्न होता है। तभी व्यवस्था में जीने का रस और सुख अपने आप मिलने लगता है। ऐसे तीन आयाम को न्याय सुलभता (न्याय प्रदायिता एवं पाने में सुलभता), उत्पादन सुलभता और विनिमय सुलभता पूर्वक ही हर परिवार व्यवस्था में जीता हुआ अनुभव करता है। ज्यादा से ज्यादा मानव, मानवीयतापूर्ण व्यवस्था में पाँचों आयामों में अपने