अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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दोनों क्रिया के लिये मानव, अस्तित्व सहज रूप में पर्याप्त रहना देखा जाता है। इस धरती के बाहर भी जो कुछ भी वस्तुएँ है, रचना-विरचना क्रम में ही सदा-सदा ही तरल-तरल के साथ, विरल-विरल के साथ, ठोस-ठोस के साथ सहअस्तित्व सहज नियम के आधार पर वर्तमानित रहता है। अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है।

अस्तित्व सदा-सदा होने के वैभववश ही अस्तित्व नाम है, इसमें सहअस्तित्व विधि से संतुलन, नियंत्रण, संरक्षण, परिणाम, विकास, जागृति जैसी अभिव्यक्तियाँ सदा-सदा रहता ही है। ऐसा कोई क्रियाकलाप को हम प्रस्तुत या कल्पना नहीं कर सकते हैं जो अस्तित्व में नहीं। अब रहा इस ग्रह गोल में हो, उस ग्रह गोल में न हो, यही स्थितियों के आधार पर किसी भाव की अपेक्षा में ही अभाव का कल्पना हो पाता है, हर अभाव देश काल ही है। इस आधार पर कोई नया-पुराने की बात नहीं हो पाती, नया-पुराना के स्थान पर नित्य वर्तमानता का भाव समीचीन रहता है। सम्पूर्ण भावों का स्वरूप ही अस्तित्व है। दूसरे विधि से ऐसे स्वरूप को अस्तित्व नाम दिया गया। मानव ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा में होने के कारण अस्तित्व को देखने, समझने, समझाने योग्य है। अभी तक जो कुछ भी अध्ययन के नाम से की गई है अथवा अध्ययनपूर्वक हाथ लगा है, वह सब अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में ही हुआ। हर अध्ययन का कसौटी यही है पूरकता, विकास, जागृति, उदात्तीकरण, प्रक्रिया-प्रणाली अनुरूप रहने से इसके विपरीत कुछ भी किया जाता है सर्वाधिक मानव ही परेशान होने से शुरुआत होता है। जैसा युद्ध, शोषण, द्रोह, विद्रोह क्रियाकलाप के लिये किया गया सभी प्रकार का प्रयास। इस क्रियाकलाप के लिए जितना भी सोचा गया है मानव दुखी पीड़ित होकर सोचा है। पीड़ाओं का उपचार उत्पीड़न विधि को अपनाने से युद्ध कर्म, युद्धाभ्यास, युद्धकौशल, युद्ध तकनीक की सामाग्रियाँ बनते आया। आज की स्थिति में युद्ध और शोषण के लिए सर्वाधिक जन-धन लगा हुआ है। इसके लिए द्रोह, विद्रोह, शोषण अति आवश्यक हुआ। इसीलिये धरती के श्रेष्ठतम प्रतिभाएँ इन्हीं कार्यों के लिए नियुक्त हुई है।

युद्ध के लिए व्यापार एक अनिवार्यता रही। अभी तक जितने भी युद्ध-व्यापार हुए, देश, देशों के बीच, पहले से अधिक शंका-कुशंका भयोत्पादी क्रम में प्रभावित हुआ। यह सम्पूर्ण मानव का देखा हुआ तथ्य है। व्यापार और युद्ध के लिए द्रोह-विद्रोह