अध्यात्मवाद
by A Nagraj
रहस्यों और अनिश्चयताओं से मुक्त विधि है, और क्रम पूर्वक हृदयंगम होता है। इसी बिन्दु पर सुस्पष्टता के लिये विभिन्न स्थलियों में आवश्यकतानुसार अवगाहन योग्य तथ्यों को प्रस्तुत किया।
अस्तित्व सर्वमानव को स्वीकृत होने के रूप में अनेकानेक ग्रह-गोल, ब्रह्माण्ड, यह धरती, धरती में पानी समुद्र, नदी, नाला, हवा, वन, खनिज, जीव-जानवर, कीट-पतंग, पशु-पक्षी का होना आबाल वृद्ध पर्यन्त हर व्यक्ति को समझ में आता है। इस धरती पर स्वयं के सदृश्य बहुत सारे लोग का होना भी स्वीकार होता है। इस परिशीलन से मानव सहित अस्तित्व सहज वर्तमान स्वीकार्य होता है। इससे आगे का मुद्दा मानव ही अस्तित्व का दृष्टा, अर्थात् देखने-समझने वाला इकाई है।
उक्त तथ्य आदिकालीन मानव के सम्मुख भी यथावत् बना ही रहा। इन सबको बनाने वाला कोई और है; ऐसा मानने वाले बनाने वाले को खोजने-मानने और मनाने के कार्य में लग गये। इस मुद्दे पर धरती के सभी प्रकार के समुदाय फँसे ही है। जबकि धरती में स्थित ये सभी परस्परताओं में पूरक और विकासक्रम में काम करते रहते हैं। इसे दूसरे भाषा में यह कहना बनता है नियंत्रित, नियमित विधि से काम करते रहे हैं। विकास के आधार पर हर वस्तु अपने-अपने पद प्रतिष्ठा में रहता ही है। ऐसे निरंतर रहने वाली वस्तुएँ मूलत: एक-एक के रूप में अनन्त वस्तुएँ और व्यापक वस्तु में होना सबको समझ में आता है। इसी मूल तथ्य से वंचित होने से ही बनाने वाले को खोजने गये। रचना-विरचना क्रम में रासायनिक-भौतिक वस्तुएँ हैं। इन्हीं वस्तुओं को अपने कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए मानव कुछ रचनाओं को बना लिया है, कुछ रचनाओं को बना सकता है। मानव जो कुछ रचनाओं को साकार करता है, उसका विरचना होते ही रहता है। चाहे प्राकृतिक रूप में हो, चाहे मानवकृत रूप में हो, अथवा जीव कृत रूप में हो। इनसे किया गया सभी रचनाएं विरचित होते हुए देखा गया है। जैसा मधुमक्खी के छत्ते का रचना-विरचना, पक्षियों के घोंसले का रचना-विरचना, दीमकों से बनी बांबीयों का रचना-विरचना, मानव के द्वारा बनाई गई झोपड़ी, महल, सेतु, महासेतु, सड़क, यंत्र-उपकरणों का रचना-विरचना होने का तथ्य को आप हम देखते ही रहते हैं। यह ध्यान में लाने की आवश्यकता है, निर्णय लेने की आवश्यकता है, ये