अध्यात्मवाद
by A Nagraj
अस्तित्व में जीवन जागृति पूर्वक मानव परंपरा में दृष्टा पद प्रतिष्ठा को प्रमाणित करना ही जीवन सहज तृप्ति और अस्तित्व सहज व्यवस्था है। व्यवस्था में ही हर मानव वर्तमान में विश्वास करना और होना पाया जाता है। और किसी उपाय से अभी तक प्रमाणित नहीं हुआ कि मानव को वर्तमान में विश्वास हो सके, कर सके। जीवन तृप्ति सहित मानव परंपरा तृप्ति, मानव परंपरा में, से, के लिये मूल उद्देश्य है। इसी सार्वभौम आशय को सार्थक बनाने के क्रम में हर व्यक्ति में स्वायत्तता, हर परिवार में समाधान, समृद्धि और सम्पूर्ण मानव में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व यही अपेक्षित भोग है। भोग के मूल में सुखापेक्षा का होना सर्वमानव में दृष्टव्य है। यह भी देखा गया है कि समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में जीवनापेक्षा सहज सुख, शांति, संतोष, आनंद वर्तमानित रहता है। मूल मुद्दा यही है कि सुविधाएँ और संग्रह इन्द्रिय सन्निकर्षात्मक भोग, अतिभोग, बहुभोग इसे वर्तमान तक अर्थात् बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक अभिप्राय माना गया। इनके निष्कर्ष को इस प्रकार देखा गया कि संग्रह, सुविधा, भोग, अतिभोग के क्रम में सुख भासते हुए उसकी निरंतरता नहीं होती - यह सर्वविदित है ही। जबकि हम मानव सदा-सदा से सुखापेक्षा से ही परम्परा क्रम में व्यक्त होते आ रहे हैं। यह घटना अर्थात् संग्रह - सुविधा मूलक सुखापेक्षाएँ सदा-सदा ही हर व्यक्ति में क्षणिकता में भंगुरता को सत्यापित कराते ही आया है। ऐसी क्षणिकता (सुख भासने वाली क्षणिकता) को पाने के लिये दिवा-रात्रि संग्रह सुविधा का परिकल्पना-सम्पादन कार्यों में लगा रहता हुआ अथवा लगे रहने के लिये इच्छा करने वाले स्थितियों में अधिकांश लोगों को देखा गया। अंतिम बात क्षणिकता के सत्यापन में ही हर पीढ़ी का उद्गार संप्रेषित होते ही आया। इस मुद्दे का संप्रेषणा इसलिये यहाँ स्मरण में लाया कि मानव परंपरा सुखापेक्षा से ही भय, प्रलोभन, आस्था, संघर्ष झेलता हुआ इतिहास रेखा बनाया है। यह रेखा मानव अपने भोग विधि और प्रवृत्ति विधि का संयोजन में स्पष्ट कर दिया है। प्रवृत्ति विधि कार्य और व्यवहारों में, प्रवृत्ति विधि के मूल में समझदारी का भी चिन्ह बना ही रहा।
कुछ समय तक मानव भयभीत होकर उससे छूटने का उपायों को ही समझदारी मान लिया। उसके तुरंत बाद या उसी के साथ साथ भय मुक्ति का स्थली को प्रलोभन के अर्थ में इन्द्रिय सन्निकर्ष व वस्तु संग्रह की ओर प्रवृत्त होना ही ज्ञान