अध्यात्मवाद
by A Nagraj
मान लिया। इनमें से समीचीन समस्याओं विकृतियों के चलते, इस धरती पर कोई सुख संभावना नहीं है। इस धरती पर कोई सुखी हो नहीं सकता। सुख स्थली कोई और है। वह ईश्वर परमात्मा का लोक है, घर है, देवी देवताओं का घर है, वहीं सुख मिलेगा। इस शरीर यात्रा में ऐसे अज्ञात ईश्वर, देवी देवताओं को प्रसन्न करना आवश्यक है, संभव है। ऐसी कल्पना के साथ अनेक उपाय सुझाया गया। इसी के साथ यह भी परिकल्पना दी, ईश्वर-देवी-देवता के शासन में ही हवा-पानी शासित रहने के बयान किये गये। साथ ही हर जर्रा शासित रहने का बयान दिया। यही आस्था स्रोत का आधार हुआ। कल्पनाएँ ज्यादा सुविधा की ओर दौड़ी। ऐसी ईश्वरीय और देवी-देवताओं के लोकों में सुख मिलने के लिये प्रलोभन और उनके कोपभाजक न होने के लिये भय का इस्तेमाल किया गया। यही आधार रहा है आस्थाओं का। जो सभी समुदायों में मौलिक ग्रन्थों के रूप में देखने को मिलता है। प्रकारान्तर से आस्था में भी वही भय और प्रलोभन जो इस धरती में भय और प्रलोभन के पराभव को स्वीकार कर चुके थे, उसी को पुन: दूसरे विधि से इस धरती से अतिरिक्त स्थली में सफल होने के आश्वासनों के साथ सम्पूर्ण आस्थाएँ, अधिकतम मानव मानस में स्वीकृत हुई। इस प्रकार के आस्था की लहरों को अभी भी धरती के जनमानस में देखा जा रहा है। इसमें समावेश हुई भय और प्रलोभन संघर्ष के रूप में आज प्रचलित हो चुकी है। जैसा-जैसा संघर्ष बुलंद होता गया वैसे वैसे संग्रह सुविधा की आवश्यकता का तादात बढ़ती गई। इसे पाने के प्रवृत्ति-प्रयासों के साथ साथ धरती, जल, वायु, वन, खनिज बरबाद होता गया। यही संघर्ष का परिणामों के रूप में आंकलन स्पष्ट हुआ है।
उक्त ऐतिहासिक तथ्यों को इसीलिये यहाँ स्मरण में लाना हुआ, हम मानव मूलत: सुखधर्मी है। सुखापेक्षा जीवन सहज है। जीवनापेक्षा सदा ही सुख, शांति, संतोष, आनन्द है। यह मानवापेक्षा रूपी समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करने के क्रम में ही जीवन सहज सुख भोग नित्य सफल होने के लिये व्यवस्था ही एकमात्र शरण है।
व्यवस्था क्रम अपने आप में जागृति मूलक अभिव्यक्ति ही है। जीवन ही जागृत होना देखा गया है। समझदारी का धारक-वाहक केवल जीवन ही होना देखा गया है।