अध्यात्मवाद
by A Nagraj
जीवन सहित ही मानव परंपरा वैभवित रहना विदित है। इन तथ्यों के आधार पर अस्तित्व सहज व्यवस्था में अथवा नियति सहज व्यवस्था में जागृत होना और प्रमाणित करना ही सुख भोग का उपाय है। इस प्रकार सुख ही भोग का आशय है, आवश्यकता है। यह व्यवहार में सर्वतोमुखी समाधान प्रमाणित होने के क्रम में मानव में, से, के लिये नित्य समीचीन है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर आते हैं, भोग केवल सुख, शांति, संतोष, आनन्द है। ऐसे जीवनापेक्षा को भोगने के लिये समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करना केवल व्यवस्था में ही संभव है, शासन में संभव नहीं है।
धर्मशासन और राज्य शासन विशेष और अव्यक्त के आधार पर तथा रहस्यमूलक होने के आधार पर सर्वसुख होना होता ही नहीं। विशेष अथवा विशेष व्यक्तियों के प्रति सम्मान इसलिये है, शापानुग्रह शक्ति अथवा ज्यादा से ज्यादा तंग करने के लिये शक्तियाँ विशेषों के पास हैं। इसके अतिरिक्त यह भी देखने को मिला कि विशेष व्यक्ति किसी जिज्ञासा को सफल होने के लिये आश्वासन देता है।
आदिकाल से भी विशेष अथवा आदर्श व्यक्ति कम संख्या में होते रहे हैं। सामान्य कहलाने वाले सदा सदा ही अधिक संख्या में रहते आये हैं। सम्मान अर्पण सदा ही विशेष व्यक्तियों के लिये सामान्य व्यक्तियों से होते ही आया। आज भी ऐसे ही अपेक्षाएं बनी रहती है। यह सर्वविदित है।
सामान्य व्यक्तियों के परस्परता में आजीविका संबंध प्रधान रहा है। इसी के साथ राज्य और धर्म शासन सूत्रों से अनुप्राणित संस्कृति, सभ्यता का धारक-वाहक होते हुए आज तक का इतिहास उक्त चार चौखटों से गुजरता हुआ देखने को मिलता है। यहाँ प्रासंगिक निष्कर्ष यही है, राज्य और धर्म शासन विधि से समाज रचना का सूत्र बनता ही नहीं है, न स्थापित हो पाया है। धर्म और राज्य के साथ, अभी तक जितने भी समुदायों के रूप में स्वीकृतियाँ है, वह सब संघर्ष परक ही है क्योंकि अभी तक समुदायगत राज्य और धर्म, सर्व स्वीकृति होना संभव नहीं हो पाया। धर्म और राज्य शासन छल, बल और प्रताड़ना जैसे औजारों के आधार पर ही गतिशील रहना देखने को मिल रहा है। इसका साक्ष्य यही है, धर्मशासन के अनुसार मानव प्रजाति सदा ही स्वार्थी अज्ञानी व पापी है। इससे छुटकारा दिलाना धार्मिक कार्यक्रम