अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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वैज्ञानिक कर्मगत धरती के साथ किये जाने वाले अनिष्ट क्रियाकलाप के प्रति अस्वीकृति होते ही आया। जागृति के लिये नित्य विद्यमान अस्तित्व, जीवन और मानवीयतापूर्ण आचरण ही प्रधान बिन्दु रहा अथवा सम्पूर्ण बिन्दु रहा। भले प्रकार से देखने-परखने के उपरान्त यह पता चला अस्तित्व में व्यापक वस्तु है, इसे परमात्मा के नाम से इंगित कर सकते हैं। यह भाग-विभाग होता नहीं। यह सम्पूर्ण प्रकृति में पारगामी है। परस्पर प्रकृति के लिये पारदर्शी है। इन प्रमाणों को हर व्यक्ति समझ सकता है। सत्ता में हर व्यक्ति डूबे, घिरे हुए स्थिति को देखता ही है। हरेक एक इसी प्रकार दिखती है। पारगामी होने का बिन्दु तभी पता चलता है, वस्तु में निहित ऊर्जा सम्पन्नता को, बल सम्पन्नता के रूप में देखा जाता है। इसे इस प्रकार देख सकते हैं कि प्रत्येक वस्तु मूलत: परमाणु अंश, परमाणु अंशों से रचित परमाणु, अनेक परमाणु से रचित अणु, अनेक अणुओं से रचित रचनाएँ दिखते ही हैं। परमाणु अंश, परमाणु के रूप में गठित होने के क्रम में इन अंशों के परस्परता में निश्चित दूरी होना पाया जाता है। ये दूरियाँ स्वयं व्यापक वस्तु ही है। ऐसे परमाणु अंशों को भी अनेकानेक भाग-विभाग में कम से कम गणितीय विधि से विभाजन कल्पना कर ही सकते हैं। कितने भी विभाजन करें एक की संख्या (अंश) बढ़ती जायेगी, न कि किसी एक का नाश होगा। इस सहज क्रिया से यह पता चलता है, एक का वैभव नित्य है। एक के सभी ओर ऊर्जा (व्यापक) दिखाई पड़ती है। इस विधि से सत्ता रूपी ऊर्जा पारगामी है। यह स्वाभाविक ही स्पष्ट हो जाती है। यह बौद्धिक प्रक्रिया इसलिये आवश्यक है कि जड़-चैतन्य रूपी अनन्त प्रकृति में सत्ता पारगामी है और यही पारगामीयता सहज महिमावश हर वस्तुएँ अथवा प्रत्येक एक सत्ता में भीगा हुआ होना पाया जाता है। इस मुद्दे को पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है। अस्तु, अस्तित्व में व्यापक सत्ता विद्यमान है, आप हमारे आखों में देखने को मिलती है, इसका भाग-विभाग होता नहीं है और जीवों का उत्पत्ति अव्यक्त विधि से होता नहीं है।

अस्तित्व में परमाणु ही जीवन पद में गठनपूर्णता पूवर्क वैभवित है। जीने की आशा का उद्गमन जीवन में, से, के लिये होता ही रहता है। यही ऊर्जा आशा रूप में प्रगट है क्योंकि जीवन अक्षय बल - अक्षय शक्ति सम्पन्न है, इस बात को पहले स्पष्ट किया जा चुका है। इसी के साथ पहले यह भी स्पष्ट किया है कि गठनपूर्ण परमाणु