अध्यात्मवाद
by A Nagraj
शताब्दी के अंतिम दशक तक विभिन्न समुदाय परंपराओं में विभिन्न प्रकार के साध्य का नाम प्रचलित किया हुआ देखा गया है। इस प्रकार के साध्य का नाम अनेक होना देखा गया है। अनेक नाम के रूप में प्राप्त साध्य के लिये संतुष्टिदायी वचन प्रणाली जिसको हम प्रार्थना कह सकते हैं। अर्चना प्रणाली जिसको हम पूजा कह सकते हैं, इसे कहके, करके दिखाने का भी प्रक्रियाएँ सम्पन्न हुई है। इसी आधार पर किसी आकार प्रकार की वस्तु को ध्यान करने की बात भी किया जाता है। ऐसी ध्यान में हर साधक में निहित कल्पनाशीलता का ही प्रयोग होना देखा गया है। ऐसी कल्पनाशीलता का प्रयोग बारबार हर दिन किया जाना भी देखा गया है। इसका अंतिम परिणाम और सार्थक परिणाम निर्विचार स्थिति होना जिसे ‘समाधि’ का भी नाम दिया जाना प्रचलित है। ऐसे स्थिति को भी अर्थात् निर्विचार स्थिति से भी गुजरा गया। भले प्रकार से गुजरने के उपरान्त समाधि का विश्लेषण कार्यक्रमों से और कार्यक्रम संबंधी प्रवृत्तियों से मुक्ति दिखाई पड़ती है। इसी को स्वान्त: सुख और चरमोपलब्धि के रूप में महिमा गायन किये है। जिसका विश्लेषण की कसौटी में कसने पर पता चला निर्विचार स्थिति के उपरान्त मानव का उपयोग शून्य हो जाता है। फलस्वरूप संयम साधना अपनाकर देखा जिसके फलस्वरूप सहअस्तित्व ही समझ में आया जिसकी सम्प्रेषणा और अभिव्यक्ति में और लोगों को सहअस्तित्व अध्ययन गम्य होना प्रमाणित हुई। इसी अभिव्यक्ति क्रम में “अनुभवात्मक अध्यात्मवाद” भी मानव सम्मुख प्रस्तुत किया गया।
जहाँ तक मनोकामनावादी अपेक्षाएँ होती है अधिकांश मानव में उसकी आपूर्ति हो ही जाती है जिसे साधना का फल माना जाता है जबकि ऐसी आपूर्तियाँ बिना साधना किये मानव को भी होते रहते हैं। इसीलिये साधना से मनोकामना पूरी हुई इस बात का चिन्हित प्रमाण नहीं मिल पाता है। यह केवल आस्था सूत्र और घटना काल के आधार पर सम्बोधन लगाने की बात आती है। यह सब प्रकारान्तर से भय-प्रलोभन का ही गठबन्धन है जबकि निर्विचार स्थिति में भय-प्रलोभन का कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ती। अभाव की पीड़ा भी नहीं दिखती। इसीलिये भूत-भविष्य का पीड़ा एवं वर्तमान का विरोध नहीं रहता। इसी को स्वान्त: सुख का नाम देना समीचीन दिखा है। स्वान्त: सुख का प्रमाण समाज के रूप में सर्वसुख के रूप में परिवर्तित होने का कोई सूत्र नहीं रह जाती है। इसीलिये इस अवस्था में प्रवेश पाने