अध्यात्मवाद
by A Nagraj
का भी काल निर्णय नहीं हो पाती। यह भी इसके साथ देखा गया है कि सम्पूर्ण ईमानदारी, निष्ठा ‘समाधि स्थिति’ के प्रति अर्पित रहने के क्रम में ही समाधि स्थली तक मन, बुद्धि, चित्त, वृत्तियाँ प्रवेश कर पाते हैं। फलस्वरूप इनकी कोई गति शेष नहीं है ऐसा बन पाता है जिसका निर्विचार स्थिति नाम दिया गया है। ऐसे घोर साधना के उपरान्त उस मानव का प्रयोजन ही, कार्यक्रम ही प्रसवित न हो ऐसे समाधि या निर्विचार स्थिति को कितने लोग चाह पाते हैं - यह प्रश्न चिन्ह में आता है। इसके उत्तर में विरले लोग ही चाह पाते है। ऐसे सद् ग्रंथों में ही लिखा गया है।
हम मूलरूप में सर्वसुख विधि को, सर्वशुभ विधि को अनुसंधान करने में तत्पर हुए। मैं अपने को सफल होने की स्वीकार स्थिति में आ गया। यह तभी घटित हुई जब अभ्यास, चिन्तन क्रम में सम्पूर्ण सहअस्तित्व ही जानने-मानने में आ गई। अस्तित्व में मानव अविभाज्य रूप में होना जानने-मानने में आई। इसी के साथ-साथ इन-इनका निश्चित कार्य क्यों, कैसा का उत्तर निष्पन्न हुई। हर मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में वर्तमान होना जानने मानने में आई। इसी के साथ अनुसंधान का फलन रूप स्वीकारने के स्थिति में आये। उसके तुरंत बाद ही इसे मानव में अर्पित करने की विधि को पहचानने की प्रक्रिया हुई। शनै:-शनै: इस कार्य में हम प्रवृत्त हुए। इस तथ्य को हम पहचानने में सफल हुए कि अनुभवमूलक विधि से मानव कुल को परंपरा के रूप में व्यक्त होने की आवश्यकता है और यह मानव में सफल होने के लिए सभी तथ्य से पूर्ण है।
समाधि लक्ष्य के अतिरिक्त जो कुछ भी साध्य, साधक, साधन के रूप में और मान्यताएँ मानव परंपरा में प्रचलित है वे सभी कल्पना क्षेत्र का ही सजावट होना पाया गया। क्योंकि हर धर्म के मूल ग्रंथ में भी धर्म का लक्षणों के रूप में अपने-अपने कल्पना को सजाया हुआ है। अतएव ऐसे सभी प्रकार के प्रतीक और प्रतीकों से सम्बन्धित वस्तुओं को साध्य मानते हुए, उसके लिये तत्परता को अर्पित किया हुआ भ्रमित साधक और भ्रमित साधन के संयोग में ईर्ष्या, द्वेष, श्राप, विरोध, वाद-विवाद, प्रलोभन, भय, समस्या ही समस्या देखने को मिला। इस प्रकार समाधिगामी साधना और मनोकामना प्राप्तिगामी साधनाएँ दोनों सुस्पष्ट है। उल्लेखनीय बात