अध्यात्मवाद

by A Nagraj

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है। यही सहअस्तित्व में अनुभूत होने का तात्पर्य है अर्थात् सत्तामयता पारगामी होने का अनुभव ही प्रधान तथ्य है। अस्तित्व में अनुभव इस तथ्य का पुष्टि होना स्वाभाविक है। सत्ता में प्रकृति अविभाज्य है। सत्ता विहीन स्थली होता ही नहीं है। सत्ता में प्रकृति नित्य वर्तमान रहता ही है। इस विधि से सत्तामयता का पारगामीयता जड़-चैतन्य प्रकृति ऊर्जा सम्पन्न रहने के आधार पर प्रमाणित हो जाता है। इस विधि से सत्तामयता में ही अविभाज्य रूप डूबे, घिरे हुए व्यवस्था में दिखाई पड़ते हैं। यही परमाणु, अणु, अणु रचित पिण्ड अनेक ग्रह-गोलों के रूप में देखने को मिलता है। यही परमाणु, अणु, अणु रचित रचनायें प्राणावस्था का संसार, जीवावस्था और ज्ञानावस्था का शरीर ही दृष्टव्य है। इन सबका दृष्टा जीवन ही है। सत्ता में अनुभव के उपरान्त ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा निरन्तर होना देखा गया है। इसी अनुभव के अनन्तर सहअस्तित्व सम्पूर्ण दृश्य, जीवन प्रकाश में समझ में आता है। जीवन प्रकाश का प्रयोग अर्थात् परावर्तन अनुभवमूलक विधि से प्रामाणिकता के रूप में बोध, संकल्प क्रिया सहित मानव परंपरा में परावर्तित होता है। अतएव जागृतिपूर्ण जीवन क्रियाकलाप अनुभवमूलक ज्ञान को सदा-सदा के लिये व्यवहार और प्रयोगों में प्रमाणित कर देता है। यही मानव परंपरा सहज आवश्यकता है।

अस्तित्व में अनुभव का परावर्तन = प्रामाणिकता = ज्ञान विवेक विज्ञान = (परावर्तन में)

अस्तित्व में अनुभूत (अनुभवपूर्ण) जीवन = ज्ञाता (प्रत्यावर्तन में)

अस्तित्व = ज्ञेय = सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति

अस्तित्व में अनुभव की स्थिति में ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता में एकरूपता सहअस्तित्व के रूप में होना देखा गया है जो ऊपरवर्णित विधि से स्पष्ट है।

यह सम्पूर्ण अभिव्यक्तियाँ नियति सहज प्रणाली से ही गुंथी हुई होती है। सहअस्तित्व सहज सम्पूर्ण क्रियाकलाप, सहअस्तित्व में पूरकता, उपयोगिता-उदात्तीकरण, रचना-विरचना के रूप में विकास क्रम में दृष्टव्य है। दूसरी धारा विकास, चैतन्य पद जीवन कार्य, जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जागृति, जागृति पूर्णता और उसकी निरंतरता ही होना दृष्टव्य है। यह सुस्पष्ट हो गया कि नियति