व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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कहाँ, सोचना पड़ेगा। यह एक विपदा की स्थिति स्पष्ट हो चुकी है। ऐसा भी कल्पना किया जा सकता है कि इस धरती पर प्रथम बूंद पानी का घटना ब्रह्माण्डीय किरणों के संयोगवश ही संभव हो पायी है, इसी के चलते ताप किरण पाचन विधि से मुक्त, अर्थात् धरती में पचने की विधि से मुक्त प्रवेश होना संभव हो गया है। पानी के बूँद के मूल में विभिन्न भौतिक तत्वों का अनुपातीय मिलन विधि है, वह विच्छेद होने का बाध्यता बन जाये; उस स्थिति में कौन इसे रोक पायेगा। तीसरी परिकल्पना और बुद्धिमान व्यक्ति कर सकता है कि इस धरती के दो ध्रुवों की परस्परता में निरंतर एक चुंबकीय धारा बनी हुई है, ऐसी चुम्बकीय धारा को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए इस धरती की गति स्वयं में व्यवस्था के रूप में और समग्र में (सौर व्यूह में) भागीदारी के रूप में प्रमाणित है। इससे चुम्बकीय धारा की स्थिरता, दृढ़ता बने रहने की व्यवस्था है। अभी जैसे धरती का पेट फाड़ दिया गया है अगर यह असंतुलित हुई तब कौन सी नस्ल व रंग वाला मानव इसे सुधारेगा और जात, सम्प्रदाय, मत, पंथ वाला कौन ऐसा व्यक्ति है जो इसे सुधार पायेगा। इन्हीं सबकी परस्परता में हुए विरोध, विद्रोह, युद्ध ही इस धरती के पेट फाड़ने की आवश्यकता को निर्मित किया है, यह भी ऐतिहासिक घटनाओं से स्पष्ट है।

जहाँ तक जल प्रदूषण की बात है, उसका सुधार संभव है, क्योंकि हर दूषित मल, प्रौद्योगिकी विसर्जनों को विविध संयोग प्रक्रिया से खाद के रूप में अथवा आवासादि कार्यों में लेने योग्य वस्तुओं के रूप में परिणित कर सकते हैं, ऐसे परिणित के लिए सभी प्रकार से - मानव से, प्रौद्योगिकी विधि से, संपूर्ण विसर्जन को अपने-अपने स्थानों में ही कहीं, धरती के गहरे गढ्ढों में संग्रहित करने की आवश्यकता