व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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प्रभावोत्पादी अर्हता को प्रमाणित करने में, से, के लिये मानव स्वतंत्र है।

व्यवस्था में जीना, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना एक आवश्यकीय कार्यकलाप रहते हुए व्यवस्था में जीने से सभी लोग संतुष्ट रहते हैं। इनमें से कुछ लोग परिवार प्रेरणा के आधार पर ही समग्र व्यवस्था में भागीदारी के लिए तत्पर हो जाते हैं। इस विधि से सम्पूर्ण परिवार ही कृत, कारित, अनुमोदित विधि से समग्र व्यवस्था में भागीदार होना प्रमाणित होता है।

स्वास्थ्य-संयम का मूल्यांकन :- पहले इस मुद्दे पर स्वास्थ्य और संयम के संबंध में विश्लेषण को प्रस्तुत किया जा चुका है। शरीर स्वस्थता ही स्वास्थ्य का प्रमाण है। शरीर स्वस्थता का तात्पर्य जीवन अपने जागृति को शरीर के द्वारा प्रमाणित कर सके, यही स्वस्थ शरीर का मापदण्ड है जिसकी आवश्यकता एक स्वाभाविक अपेक्षा है। संयमता यही है अनुभव मूलक विधि से सम्पूर्ण कार्य-व्यवहार का मानव परंपरा में प्रमाणित करना ही है। संयमता की महिमा व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होने और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करना ही है। यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में वैभवित होने का सूत्र है। इसी का व्याख्या सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज है।

स्वास्थ्य अर्थात् शरीर स्वस्थता को बनाये रखने के लिये आहार, विहारों में संतुलन आवश्यक रहता ही है। सप्त धातु संतुलन धर्मी अथवा सप्त धातु संतुलन कार्यकारी वस्तुओं को पहचानना, निर्वाह करना, उसके पहले जानना, मानना अति आवश्यक रहता ही है। जीवन्त शरीर में शरीर जिसको हवा, पानी, अन्न, औषधि के रूप में ग्रहण करता है उसे पाचनपूर्वक